मेवाड़ का इतिहास – Mewar ka itihas | पूरी जानकारी | History of Rajasthan

आज के आर्टिकल में राजस्थान के इतिहास के अंतर्गत हम आपको मेवाड़ के इतिहास(Mewar ka itihas) की पूरी जानकारी देने वाले है। मेवाड़ के इतिहास के नोट्स पुरे निचोड़ के साथ दिए जा रहें है। आप पुरे आर्टिकल को अच्छे से पढ़ें।

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मेवाड़ का इतिहास – Mewar ka itihas

  •  मेवाड़ का प्राचीन नाम मेदपाट/प्राग्वाट है। मेदपाट उस समय शिवि जनपद में आता था, जिसकी राजधानी मध्यमिका/नगरी (चित्तौड़गढ़) है, जिसका उल्लेख महाभारत व महाभाष्य में मिलता है।
  • इस क्षेत्र का विस्तार उदयपुर, चित्तौड़गढ़ राजसमंद, भीलवाड़ा, सलूम्बर तक है।
  • मेवाड़ की आरम्भिक राजधानी नागदा थी।
  • मेवाड़ के राजा स्वयं को राम का वंशज बताते थे, इसी कारण भाटों और चारणों ने मेवाड़ के शासकों को ’रघुवंशी’ और ’हिन्दुआ सूरज’ कहा है।
  • गुहिल वंश का वाक्य – ’’जो दृढ़ राखै धर्म रो, तिहि राखै करतार।’’
  • मुहणोत नैणसी और कर्नल जेम्स टाॅड ने गुहिल वंश की 24 शाखाओं का उल्लेख किया है।
  • गुहिल वंश की कुलदेवी बाणमाता (नागदा, उदयपुर) और कुलदेवता एकलिंग नाथ जी (कैलाशपुरी, उदयपुर) थे। मेवाड़ के राजा स्वयं को एकलिंग नाथ जी का दीवान मानते है।
  • गुहिल वंश के आराध्यदेवता चारभुजानाथ जी (गढ़बोर, राजसमंद) और आराध्यदेवी चारभुजा माता (हल्दीघाटी, राजसमंद) थी।
  • गुहिल वंश में मेवाड़ रियासत थी। मेवाड़ पर प्रारम्भ में मौर्यों ने शासन किया था। मेवाड़ के शासकों का राजतिलक उन्दरी गाँव का भील करता था

गुहिलों की उत्पत्ति –

  • कर्नल जेम्स टाॅड – वल्लभीनगर साम्राज्य (गुजरात) के शासक शिलादित्य के वंशज है।
  • अबुल फजल – ईरान के शासक नौशेखा आदिलशाह की संतान है।
  • डाॅ. भण्डारकर – आहड़ शिलालेख में गुहिलों को नागर वंशी ब्राह्मण बताया है।
  • डाॅ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा – गुहिलों को सूर्यवंशी बताया है।

गुहिल शाखा

गुहिल वंश के शासक

शिलादित्य –

  • किंवदन्ती है कि कैहर गाँव में एक देवादित्य नामक ब्राह्मण रहता था। इसकी पुत्री सुभागा देवी थी और इसका विवाह होने के कुछ समय बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गयी। फिर सुभागा देवी सूर्य की आराधना करने लगी, तभी सूर्य देवता के आशीर्वाद से उनके वल्लभी नामक स्थान पर शिलादित्य नामक पुत्र हुआ।
  • शिलादित्य वल्लभीपुर के राजा को हराकर शिलादित्य यहाँ का शासक बन गया।
  • शिलादित्य का विवाह पुष्पावती से हुआ। शिलादित्य के समय 524 ई. में विदेशियों ने वल्लभी पर आक्रमण कर दिया और वल्लभी को नष्ट कर दिया तथा शिलादित्य की हत्या कर दी। तभी इनकी पत्नी पुत्र प्राप्ति के लिए चन्द्रावती (सिरोही) में जगदम्बा के दर्शन करने गई थी। यह समाचार मिलने पर पुष्पावती सती होना चाहती थी, लेकिन गर्भवती होने के कारण सती होना सम्भव नहीं था। तब उसने सहेलियों के साथ ’माव्लेया’ नामक गुफा में शरण लेकर पुत्र गोह को जन्म दिया।
  • उस गुफा के पास एक वीर नगर की ब्राह्मणी कमलावती रहती थी, पुष्पावती ने कमलावती को अपना पुत्र का दायित्व सौंप दिया और स्वयं सती हो गयी। कमलावती ने ही उसका नामक ’गोह’ रखा था, जो आगे चलकर ’गुहिल’ के नाम से विख्यात हुआ।

गुहिलादित्य –

गुहिलादित्य की जीवनी
पिता शीलादित्य
माता पुष्पावती
पालन पोषण कमलावती (वीर नगर की ब्राह्मणी)
संस्थापक मेवाड़ राजवंश
शासनकाल 566 ई.
राजधानी नागदा
राजतिलक मंडलिक भील
  • गुहिल का लालन-पालन कमलावती ने किया था। वीर नगर के पास ईडर नामक भील साम्राज्य था, यहीं वह अपने मित्रों के साथ जानवरों का शिकार करता था और खेलता था। एक दिन बच्चों ने खेल-खेल में गौह को अपना राजा चुन लिया। तभी भीलों के वृद्ध राजा मांडलिक गोह से प्रसन्न हुए और उसे अपना राज्य सौंप दिया।
  • उंदरी गाँव के भील सरदारों द्वारा 566 ई. में इनका राज्याभिषेक कर दिया गया।
  • गुहिलादित्य ने 566 ई. में गुहिल वंश की नींव रखी।
  • गुहिलादित्य को गुहिल वंश का संस्थापक/मूलपुरुष/आदिपुरुष माना जाता है।
  • इसने अपने साम्राज्य की प्रारंभिक राजधानी नागदा (उदयपुर) को बनाया।
  • गुहिलादित्य के वंशज गुहिल/गुहिलोत कहलाये।
  • गुहिलादित्य का 8वां वंशज नागादित्य था। इसने भीलों के साथ दुव्र्यवहार किया था, तब भीलों ने इसकी हत्या कर दी।
  • नागादित्य का पुत्र कालभोज जो अगला शासक बना।

बप्पा रावल –

  • बप्पा रावल मेवाड़ राज्य का वास्तविक संस्थापक था।
  • बप्पा रावल का मूल नाम कालभोज था और यह प्रारम्भ में भीलों डर से नायब के जंगलों में हारित ऋषि की गायें चराता था।
  • हारित ऋषि ने ही इन्हें ’बप्पा रावल’ की उपाधि दी थी।
  • हारित ऋषि के आशीर्वाद से 734 ई. में मान मौर्य को पराजित कर चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया और मेवाड़ में गुहिल साम्राज्य की स्थापना की।
  • बप्पा रावल ने अपनी राजधानी नागदा (उदयपुर) को बनाया।
  • इन्होंने कैलाशपुरी (उदयपुर) में एकलिंग जी का मन्दिर और नागदा (उदयपुर) में सहस्रबाहु का मंदिर बनवाया।
  • जब चित्तौड़ पर विदेशी सेना का आक्रमण हुआ, तब इस मुकाबले की चुनौती बप्पा रावल ने स्वीकार की और उन्हें सिंध तक खदेड़ दिया। बप्पा रावल ने चित्तौड़ पर अधिकार कर हिन्दू सूरज, चक्कवै और राजगुरु की उपाधियाँ धारण की।
  • इन्होंने ही मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाये थे। जिनके एक तरफ त्रिशुल का चिह्न, दूसरी तरफ सूर्य अंकित था, जो 115 ग्रेन का था।
  • मेवाड़ में मुद्रा प्रणाली का जनक बप्पा रावल है।
  • बप्पा रावल के नाम पर पाकिस्तान में एक नगर का नाम ’रावलपिण्डी’ पड़ा।
  • बप्पा रावल ने गजनी (अफगानिस्तान) के सलीम को हराया।
  • बप्पा रावल की समाधि नागदा (उदयपुर) में है।
  • सी.वी. वैद्य ने बप्पा रावल की तुलना चार्ल्स मार्टेल से की।

अल्लट –

  • अल्लट ने मेवाड़ की राजधानी आहड़ (उदयपुर) को बनाया।
  • इनके शासनकाल में मेवाड़ में सर्वप्रथम नौकरशाही की शुरुआत हुई।
  • अल्लट ने हरिया देवी (विदेशी जाति की हूण राजकुमारी) से विवाह किया। यह राजस्थान का प्रथम अंतर्राष्ट्रीय विवाह था। इसने हूणों की सहायता से अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
  • इसने आहड़ (उदयपुर) में वराहमंदिर और जगत अम्बिका माता के मंदिर का निर्माण करवाया।

शक्ति कुमार –

  • शक्ति कुमार के शासनकाल में मालवा के परमार शासक वाकपति मुंज ने आहड़ को नष्ट कर चित्तौड़गढ़ दुर्ग व आस-पास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
  • मुंज के बाद भोज परमार उत्तराधिकारी बना। जिसने चित्तौड़गढ़ में त्रिभुवन नारायण मंदिर का निर्माण करवाया।
  • कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के अनुसार भोज परमार ने नागदा में भोजसर तालाब का निर्माण करवाया।

रणसिंह (1158-1168) –

  • रणसिंह के काल में गुहिल वंश का बंटवारा हो गया और यह दो शाखाओं में विभाजित हो गया। प्रथम शाखा – रावल शाखा (चित्तौड़गढ़), जिसे रणसिंह के दूसरे पुत्र क्षेमसिंह ने संभाला। द्वितीय शाखा – राणा शाखा, जिसकी स्थापना रणसिंह के पुत्र राहप ने सिसोदा ग्राम बसाकर की। ये सिसोदिया कहलाये। रणसिंह के बाद रावल शाखा ने मेवाड़ पर शासन किया था।

रावल क्षेमसिंह (1168-1172) –

  • क्षेमसिंह रावल शाखा की शुरूआत कर मेवाड़ का शासक बना। रावल क्षेमसिंह के दो पुत्र – रावल सामंतसिंह व रावल कुमार सिंह थे।
  • अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की बहिन पृथ्वीबाई का विवाह रावल सामंतसिंह से हुआ था। परन्तु नाडौल के शासक कीर्तिपाल चौहान पृथ्वीबाई से प्रेम करता था। इसी कारण दोनों में अनबन हो गयी और कीर्तिपाल चौहान ने 1177 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया।
  • तब सामंतसिंह 1178 ई. में वागड़ चले गयै और वहाँ गुहिल वंश की स्थापना की।
  • उसके बाद उसका अल्पायु भाई कुमार सिंह मेवाड़ का शासक बना। रावल कुमारसिंह ने कीर्तिपाल चौहान पर 1179 ई. में आक्रमण किया और मेवाड़ पर पुनः अधिकार कर लिया।

जैत्रसिंह (1213-1253) –

  • दिल्ली के शासक इल्तुतमिश व जैत्रसिंह के सेनापति मदन व बादल के मध्य भूताला का युद्ध (1222-1227) हुआ था, जिसमें जैत्रसिंह की विजयी हुई। इल्तुतमिश की भागती सेना ने नागदा को लूट लिया। इस युद्ध की जानकारी जयसिंह सूरी के ग्रन्थ हम्मीर मदमर्दन से मिलती है।
  • जैत्रसिंह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को बनाया।
  • जैत्रसिंह के शासनकाल को दशरथ शर्मा ने ’मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल’ कहा जाता है।
  • दिल्ली के सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद ने 1248 ई. में मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया।
  • डाॅ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार – दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह ही हुआ। जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके शत्रुओं ने भी की है।

तेजसिंह (1253-1267) –

  • जैत्रसिंह के बाद उसका पुत्र तेजसिंह शासक बना, जो प्रतिमा सम्पन्न शक्तिशाली शासक था।
  • तेजसिंह ने परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर की उपाधि धारण की।
  • 1253-54 ई. में दिल्ली के शासक बलवन ने रणथम्भौर, बूंदी व मेवाड़ पर आक्रमण किया। तेजसिंह ने उसके आक्रमण को असफल कर दिया।
  • तेजसिंह की पत्नी जयतल्ल देवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
  • इनके काल में आहड़ (उदयपुर) से मेवाड़ का प्रथम चित्रित ग्रन्थ ’श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि’ मिला। जिसे 1260 ई. में कमलचन्द्र ने चित्रित किया।

समरसिंह (1267-1302) –

  • समरसिंह ’त्रिलोका’ की उपाधि से अलकृंत है।
  • कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में समरसिंह को ’शत्रुओं की शक्ति का अपहर्ता’ कहा गया है।
  • आबू शिलालेख में इनको ’तुर्कों से गुजरात का उद्धारक’ कहा गया है।
  • 1299 ई. में अलाउद्दीन का सेनापति उलूग खाँ गुजरात अभियान के लिए जा रहा था, तब समरसिंह ने उस शाही सेना से कर वसूला था।
  • समरसिंह के समय रत्नप्रभ सूरि एवं पार्श्वचन्द्र नाम के दो प्रसिद्ध जैन विद्वान थे।
  • इसके काल में कुम्भकरण ने नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना की।

रावल रतनसिंह (1302-1303) –

  • रतनसिंह गुहिलों में रावल शाखा का अंतिम शासक था।
  • इस शासक के बारे में जानकारी कुम्भलगढ़ प्रशस्ति व एकलिंग महात्म्य ग्रन्थ से मिलती है।
  • रतनसिंह के समकालीन दिल्ली का शासक अलाउद्दीन खिलजी था। अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्यवादी नीति के तहत और पद्मिनी को प्राप्त करने के उद्देश्य (मलिक मुहम्मद जायसी के अनुसार) से मेवाड़ पर आक्रमण किया और 28 जनवरी 1303 ई. को दिल्ली से रवाना हुआ।
  • खिलजी की सेना ने पड़ाव गंभीरी व बेड़च नदियों के बीच डाला, जबकि अलाउद्दीन ने स्वयं चित्तौड़ी नामक पहाड़ी पर अपना शिविर लगाया। लगभग 8 माह तक दुर्ग का घेरा चलता रहा। जब दुर्ग में अन्न-जल की कमी हो गयी और कोई उपाय नहीं मिला। तब रतनसिंह के सेनापति गौरा व बादल के नेतृत्व में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर चित्तौड़ दुर्ग के फाटक खोल कर शत्रुओं पर टूट पड़े और वीरगति को प्राप्त हो गए।
  • तभी उसकी पत्नी रानी पद्मिनी ने 1600 राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़ का प्रथम साका था।
  • 26 अगस्त 1303 को चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर खिलजी ने अधिकार कर लिया।
  • अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवि अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ ’खजाइन-उल-फुतुह’ में इस घटना का सजीव वर्णन किया।
  • चित्तौड़गढ़ में प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा एकादशी को जौहर मेला भरता है।
  • अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का शासन अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंप दिया और चित्तौड़ का नाम बदलकर ’खिज्राबाद’ कर दिया।
  • 1313 ई. तक खिज्र खाँ चित्तौड़ पर शासन करता रहा। 1313 ई. में चित्तौड़ का शासन सोनगरा चैहान मालदेव को सौंपकर स्वयं दिल्ली चला गया।
  • 1321 ई. में मालदेव की मृत्यु हो गयी। इसके बाद मालदेव का पुत्र बनवीर/जयसिंह राजा बना।
  • 1326 ई. में मोहम्मद बिन तुगलक के समय हम्मीर सिसोदिया ने मालदेव के पुत्र जयसिंह/जैसा को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया और मेवाड़ में राणा शाखा के साम्राज्य की शुरूआत हुई।

सिसोदिया शाखा

सिसोदिया वंश के शासक

  • गुहिल वंश के राजा रणसिंह के पुत्र राहप ने सिसोदा ग्राम में जाकर रहना शुरू कर दिया। राहप के ही वंश में लक्ष्मणदेव सिसोदिया हुआ। इसी के वंशज आगे चलकर सिसोदिया/राणा कहलाए।
  • लक्ष्मणदेव सिसौदिया के सातवें पुत्र अरिसिंह का पुत्र हम्मीर सिसोदिया मेवाड़ का सिसोदिया वंश का कर्णधार बना।

महाराणा हम्मीर सिसोदिया (1326-1364 ई.) –

  • हम्मीर सिसोदिया मेवाड़ में सिसोदिया साम्राज्य का संस्थापक था।
  • हम्मीर सिसोदिया ने 1326 ई. में सिसोदिया साम्राज्य की स्थापना की।
  • हम्मीर को ’मेवाड़ का उद्धारक’ कहा जाता है।
  • कुंभलगढ़ शिलालेख (1460 ई.) की चौथी शिला में हम्मीर को विषम घाटी पंचानन अर्थात् सिंह के समान सदृश रहने वाला राजा बताया गया है।
  • रसिक प्रिया टीका में कुम्भा ने हम्मीर को ’वीर राजा’ की उपाधि दी।
  • राणा हम्मीर सिसोदिया और मोहम्मद बिल तुगलक के मध्य 1336 ई. में सिंगोली का युद्ध हुआ। जिसमें हम्मीर की विजय हुई।
  • पहाड़ी क्षेत्रों पर आधिपत्य के लिए इसने केलवाड़ा को केन्द्र बनाया।
  • एकलिंग महात्म्य के अनुसार, हम्मीर ने मालदेव चैहान के पुत्र को पराजित किया तथा जीलवाड़ा के सरदार राघव को पराजित किया।
  • इन्होंने चित्तौड़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता का मंदिर बनवाया।
  • कर्नल जेम्स टाॅड ने हम्मीर को ’अपने समय का प्रबल हिन्दू राजा’ कहा।

महाराणा क्षेत्रसिंह/खेता (1364-1382 ई.) –

  • क्षेत्रसिंह ने अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए अजमेर, मांडल व जहाजपुर को अपने राज्य में मिलाया। इसके समय में मालवा-मेवाड़ संघर्ष की शुरूआत हुई। खेता ने मालवा के शासक दिलावर खाँ गौरी को पराजित किया।
  • बूँदी पर आक्रमण कर हाड़ा शासकों को भी दबाया।
  • 1382 ई. में क्षेत्रसिंह बूंदी के लाल सिंह हाड़ा के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए।

महाराणा लाखा –

  • राणा लाखा के शासनकाल में एशिया की सबसे बड़ी चाँदी की खान जावर (उदयपुर) में मिली। जिसकी आय से उसने कई किलों व मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया।
  • इनके काल में पिच्छू नामक बन्जारे ने अपने बैल की स्मृति में उदयपुर में पिछोला झील का निर्माण करवाया। इस झील के किनारे गलकी नटणी का चबूतरा है।
  • इनके दरबार में झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट नामक विद्वान थे।
  • राणा लाखा ने दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन द्वितीय को बदनौर के समीप युद्ध में हराया तथा हिन्दूओं से लिया जाने वाला तीर्थंकर समाप्त करने वचन लिया।
  • राणा लाखा ने बूंदी के किले को जीतने का प्रण लिया लेकिन असफल होने के कारण अपने प्रण को पूरा करने के लिए नकली मिट्टी का किला बनाकर जीता था। नकली तारागढ़ की रक्षा करते हुये कुंभा हाड़ा मारा गया।
  • मारवाड़ के रणमल राठौड़ ने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह सशर्त लाखा के साथ किया। शर्तें के अनुसार हंसाबाई के पुत्र मोकल को मेवाड़ का अगला शासक बनाया गया।
  • अपने पिता लाखा की शर्त को पूरा करने के लिए राणा चूड़ा ने मेवाड़ का शासक बनना अस्वीकार किया। इसलिए राणा चूड़ा को ’मेवाड़ का भीष्म पितामह’ कहा जाता है।

राणा मोकल (1421-1433 ई.) –

  • महाराणा लाखा की मृत्यु के समय मोकल 12 वर्ष की अल्पायु में मेवाड़ का शासक बना।
  • हंसाबाई हमेशा कुँवर चूड़ा को शक की दृष्टि से देखती थी। इसलिए परेशान होकर कुँवर चूड़ा मालवा/मांडू के सुल्तान होशंगशाह के पास चले गये।
  • हंसाबाई ने अपने भाई रणमल को मोकल का संरक्षक बना दिया और शासन-प्रबन्ध संभालने का दायित्व उसे सौंप दिया। रणमल ने मेवाड़ की सेना की सहायता से मण्डोर पर अधिकार कर लिया और मेवाड़ के उच्च पदों पर राठौड़ सरदारों की नियुक्ति कर दी। इसी कारण सिसोदिया सरदार रणमल से नाराज हो गये।
  • रणमल ने आवेश में आकर मेवाड़ सरदार राघवदेव की हत्या कर दी।
  • 1428 ई. में मोकल ने रामपुरा के युद्ध (भीलवाड़ा) में नागौर के फिरोज खाँ को पराजित किया।
  • 1433 ई. में गुजरात के शासक अहमदशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। मोकल की सेना ने जीलवाड़ा (राजसमंद) नामक स्थान पर पड़ाव डाला। महपा पंवार के कहने पर महाराणा खेता की उपपत्नी से उत्पन्न दो पुत्र चाचा और मेरा ने अवसर पाकर मोकल की हत्या कर दी।
  • मोकल की दूसरी रानी कमलावती ने 1433 ई. में अहमदशाह के आक्रमण में मोकल की हत्या के बाद मात्र 500 सैनिकों के साथ मुस्लिम सेना का सामना किया। लेकिन मुस्लिम सेना के सामने ज्यादा देर टिक ना सकी, अन्त में जलती चिता में कूद गई।
  • मोकल ने परमार वंशीय राजा भोज द्वारा चित्तौड़गढ़ दुर्ग में निर्मित समिधेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार 1428 ई. में करवाया, तब से इसे मोकल जी का मंदिर कहा जाने लगा।
  • इन्होंने एकलिंग जी के मंदिर के परकोटे का निर्माण करवाया।
  • मोकल के दरबार में योगेश्वर व विष्णु भट्ट जैसे विद्वान और मना, फना व विसल जैसे शिल्पी रहते थे।

महाराणा कुम्भा (1433-1468) –

महाराणा कुम्भा की जीवनी
पिता मोकल
माता सौभाग्य देवी
दादा लाखा
शिल्पी मंडन
आराध्य देव विष्णु
गुरु हीरानंद
  • महाराणा कुम्भा सर्वाधिक 108 उपाधियाँ धारण करने वाला शासक था।
  • कुम्भा की उपाधियाँ – अभिनव भरताचार्य (संगीत में विपुल ज्ञान के कारण), राजगुरु (राजाओं को शिक्षा देने के कारण), हाल गुरु (पहाड़ी किलों का विजेता), धीमान (बुद्धिमतापूर्ण निर्माण के कारण), राणा रासौ (साहित्य का जानकार व विद्वानों का आश्रयदाता), शैल गुरु, दानगुरु, चाप गुरु (धनुर्विद्या का ज्ञाता), छापगुरु, अश्वपति व पवित्रता का अवतार, नरपति और हिन्दु सुरताण।

महाराणा कुम्भा जब का मेवाड़ का महाराणा बना तो उसके सामने दो समस्याएँ थीं –

1. अपने पिता के हत्यारों का दमन करना।
2. रणमल के मेवाड़ में बढ़ते प्रभाव को कम करना।

  • कुम्भा ने चाचा और मेरा का दमन करने के लिए मारवाड़ से रणमल को सेना सहित बुला लिया और अपने पिता के हत्यारे चाचा और मेरा की हत्या कर दी। चाचा का पुत्र एक्का व महपा पंवार जान बचाकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में चले गए।
  • इसी कारण महाराणा कुम्भा और मालवा के महमूद खिलजी प्रथम के मध्य 1437 ई. में सारंगपुर का युद्ध हुआ। जिसमें कुम्भा विजयी रहा। महमूद खिलजी प्रथम को 6 माह के लिए बन्दी बना लिया। कुम्भा ने इस विजय स्मृति में चित्तौड़गढ़ में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
  • महमूद खिलजी प्रथम ने सारंगपुर युद्ध में अपनी हार का बदला लेने के लिए 1443 ई. में विशाल सेना के साथ कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।
  • कुँवर चूड़ा ने भारमली के सहयोग से रणमल राठौड़ की हत्या करवा दी। रणमल के पुत्र जोधा ने बीकानेर के पास काहुनी गाँव में जाकर शरण ली।
  • जोधा मण्डोर पर आक्रमण करता था, परन्तु वह विफल रहता। हंसाबाई की मध्यस्थता से मेवाड़ के राणा कुम्भा व मारवाड़ के राव जोधा के बीच 1453 ई. में आंवल-बांवल की संधि हुई, जिसके तहत मेवाड़ व मारवाड़ की सीमाओं का निर्धारण सोजत को केन्द्र मानकर किया गया।
  • गुजरात के शासक कुतुबद्दीन शाह व मालवा के शासक महमूद खिलजी के मध्य 1456 ई. में चंपानेर की संधि हुई। दोनों ने संयुक्त रूप से महाराणा कुम्भा पर आक्रमण की योजना बनाई।
  • कुतुबद्दीन आबू पर अधिकार कर आगे बढ़ा, कुंभलगढ़ दुर्ग के पास कुम्भा ने कुतुबद्दीन को हरा दिया और वह वापस गुजरात चला गया।
  • महमूद खिलजी ने मालवा की तरफ से मेवाड़ में प्रवेश किया और 1457 ई. में बदनौर के युद्ध में कुम्भा से हार गया। अतः यह संधि असफल हुई। इस विजय के उपलक्ष्य में कुम्भा ने बदनौर में कुशाल माता का मंदिर बनवाया।
  • महाराणा कुम्भा के अंतिम समय में उन्माद नामक रोग हो गया था, इस कारण वह अधिकांश समय कुंभलगढ़ दुर्ग में मामादेव मंदिर के तालाब पर बिताने लगे। 1468 ई. में एक दिन तालाब किनारे भगवान की भक्ति में लीन कुंभा की उसके बड़े पुत्र उदा ने हत्या कर दी। इसी कारण उदा को ’मेवाड़ का पितृहंता’ कहा जाता है।
महाराणा कुम्भा की उपलब्धियाँ –
  • कवि श्यामलदास की पुस्तक वीर विनोद के अनुसार महाराणा कुम्भा द्वारा मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण करवाया।
  • इनका काल ‘स्थापत्य कला का स्वर्णकाल’ कहलाता है। अतः कुम्भा को ‘स्थापत्य कला का जनक’ भी कहा जाता है।
कुंभा द्वारा रचित ग्रंथ –
  • संगीत राज, संगीत सार, सूढ़ प्रबन्ध, कामराज रतिसार, रसिक प्रिया, चण्डी शतक।
  • कुंभा वीणा नामक वाद्ययंत्र का प्रयोग करते थे। इनके संगीत गुरु सारंग व्यास थे।
  • इनके दरबारी विद्वान मण्डल, राजवल्लभ, वास्तुसार, श्री सारंग व्यास, कान्हा व्यास, रुप मंडन, अत्रि भट्ट जिनसेन सूरी व देवमूर्ति प्रकरण थे।
  • कुम्भा के दरबार में प्रतिष्ठित रचनाकार मेहा था। इसका ग्रंथ तीर्थमाला है।
महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित दुर्ग –
  • कुंभलगढ़ (राजसमंद)
  • बसंतगढ़/बसन्ती (सिरोही)
  • अचलगढ़ किला (सिरोही)
  • मचान दुर्ग (सिरोही)
कुम्भा द्वारा निर्मित मंदिर –
  • कुंभस्वामी मंदिर (चित्तौड़गढ़)
  • एकलिंग जी मंदिर (चित्तौड़गढ़)
  • कुशालमाता मंदिर (बदनौर)
  • शृंगार चंवरी मंदिर (चित्तौड़गढ़)

कुम्भा की पुत्री रमाबाई महान संगीतज्ञ थी। जिसे ’वागिश्वरी’ कहा जाता है। इसे कुम्भा ने जावर का परगना भेंट किया था।

उदा (1468-1473 ई.) –

  • अपने पिता कुम्भा की हत्या कर मेवाड़ का शासक बना।
  • उदा व रायमल के बीच 1473 में दादिमपुर का युद्ध (चित्तौड़) हुआ और इसके बाद उदा ने मेवाड़ छोड़ दिया तथा बीकानेर के राव बीका के पास शरण ली।
  • अकस्मात् बिजली गिरने से मालवा (मध्यप्रदेश) में उदा की मृत्यु हो गई।

रायमल (1473-1509) –

  • उदा की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक बना।
  • रायमल की पत्नी शृंगार देवी ने चित्तौड़गढ़ में ‘घोसुण्डी बावड़ी’ का निर्माण करवाया।
  • इन्होंने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अद्भुत जी के शिव मंदिर का निर्माण करवाया।
  • इन्होंने एकलिंग जी के मंदिर का पुनःनिर्माण करवाया।
  • रायमल की छतरी जावर (उदयपुर) में है।
  • रायमल के 4 पुत्रों – पृथ्वीराज सिसोदिया, जयमल, राजसिंह व संग्राम सिंह द्वितीय के मध्य उत्तराधिकारी संघर्ष शुरू हो गया। सारंगदेव ने तीनों भाईयों में मेल कराने का प्रयास किया और उन्हें भीमल गाँव की मीरी चारणी नामक पुजारिन के पास ले गया। पुजारिन ने राणा सांगा के राजा बनने की भविष्यवाणी की। तभी क्रोधित होकर पृथ्वीराज ने सांगा पर प्रहार किया और इस प्रहार से सांगा की एक आँख फूट गई।
  • सांगा यहाँ से जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। जयमल उसका पीछा करता हुआ सेवन्त्री गाँव (राजसमंद) पहुँचा, वहाँ राठौड़ बीदा ने सांगा को शरण दी लेकिन राठौड़ बीदा जयमल के हाथों मारा गया।
  • सांगा यहाँ से गोडवाड़ के रास्ते अजमेर पहुँचा, जहाँ श्रीनगर के कर्मचन्द पंवार ने उसे शरण दी।
  • कर्मचन्द पंवार सांगा की कहानी से प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह सांगा से कर दिया। सांगा जब तक मेवाड़ का शासक नहीं बना तब तक कर्मचन्द के पास ही रहा। जब सांगा शासक बना, तब कर्मचन्द पंवार को ’रावत’ की उपाधि से विभूषित किया।

महाराणा सांगा (1509-1528) –

महाराणा सांगा की जीवनी
पिता रायमल
माता रतन कुंवर
दादा कुंभा
उपाधि हिन्दूपत, सैनिकों का भग्नावेश
  • महाराणा सांगा मेवाड़ का सबसे प्रताती शासक था। सांगा को हिन्दूपत और सैनिकों का भग्नावेश कहा जाता है।
  • महाराणा सांगा का राज्याभिषेक 24 मई 1509 में चित्तौड़गढ़ में कर्मचन्द पंवार के सहयोग से हुआ। सांगा ने कर्मचन्द पंवार को अजमेर की जागीर दी।
  • सांगा के समकालीन दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी (1517-1526 ई.) था। यह साम्राज्यवादी नीति का शासक था।
  • 1517 ई. में इब्राहिम लोदी व महाराणा सांगा के मध्य खातोली का युद्ध हुआ। इस युद्ध में सांगा विजयी हुआ, परन्तु सांगा का एक हाथ व एक पैर कट गया।
  • इब्राहिम लोदी ने खातौली युद्ध की हार का बदला लेने के लिए 1518 ई. में मियाँ हुसैन फरमूली व मियाँ माखन के नेतृत्व में सेना भेजी। राणा सांगा ने बाड़ी (धौलपुर) के निकट इस सेना को हराया। स्वयं बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में इस युद्ध में राजपूतों की विजय बताई है।
  • महमूद खिलजी द्वितीय को मालवा का शासक बनाने में मेदिनीराय ने सहायता की थी। मेदिनीराय को मालवा से निष्कासित कर दिये जाने के बाद उसने सांगा से मदद मांगी। तब सांगा ने मेदिनीराय को गागरोण की जागीर देकर वहाँ का शासक बना दिया। महमूद खिलजी ने मेदिनीराय को दण्ड देने के लिए गागरोन दुर्ग पर चढ़ाई की। महाराणा सांगा व मेदिनीराय तथा महमूद खिलजी द्वितीय के मध्य 1518-19 ई. को गागरोन का युद्ध हुआ। महमूद खिलजी को सांगा ने चित्तौड़ में 6 माह तक बन्दी बनाकर रखा।
  • बाड़ी के युद्ध में राणा सांगा से हारने के बाद इब्राहिम लोदी के चाचा दौलत खाँ लोदी व चचेरे भाई आलम खाँ लोदी ने बाबर को भारत में आमंत्रित किया था। 21 अप्रैल 1526 ई. को पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
  • बाबर के सैनिक पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराकर वापस लौट रहे थे तो रास्ते में बाबर के सेनापति ने बयाना (भरतपुर) दुर्ग पर अधिकार कर लिया, तब राणा सांगा ने बाबर की सेना पर आक्रमण कर दिया। बाबर की सेनाए व सांगा के सैनिकों में 16 फरवरी 1527 ई. को बयाना का युद्ध हुआ। सांगा इस युद्ध में विजयी हुआ और मुगल सैनिक भाग गए। उन्होंने बयाना के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।
  • बाबर तथा महाराणा सांगा के बीच 17 मार्च 1527 ई. को खानवा का युद्ध हुआ।
  • इस युद्ध से पहले बाबर के ज्योतिष मुहम्मद शरीफ ने बाबर की पराजय की भविष्यवाणी की थी। इसी कारण सेना ने युद्ध करने से इंकार कर दिया, तो बाबर ने जिहाद का नारा (धर्मयुद्ध) दिया, तब सेना युद्ध करने के लिए तैयार हो गयी। इस युद्ध में बाबर ने तुगुलुमा युद्ध पद्धति व तोपखाने का प्रयोग किया था। बाबर के प्रमुख तोपची मुस्तफा अली, उस्ताद अली थे। बाबर ने मुस्लिम व्यापारियों पर से तमगा कर हटा लिया। व्यक्तिगत शराब के सेवन पर रोक लगायी।
  • महाराणा सांगा ने पाती-परवन पत्र लिखकर सहायता मांगी। तब आमेर के पृथ्वीराज कच्छवाहा, मारवाड़ के कुंवर मालदेव, बीकानेर के कुंवर कल्याणमल, चंदेरी के मेदिनीराय, जगनेर के अशोक परमार, डूँगरपुर के उदयसिंह, मुस्लिम सेनापति हसन खां मेवाती और सादड़ी के झल्ला अज्जा आदि इस युद्ध में सांगा की सहायता के लिए आये थे।
  • राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजा था जिसके नेतृृत्व में पूरे राजपूतों ने मुगलों को भारत से बाहर निकालने का प्रयास किया। खानवा के युद्ध में घायल सांगा को मैदान से बाहर झाला अज्जा व मालदेव ने निकाला। सांगा का राजमुकुट झाला अज्जा ने धारण किया और सांगा को घायल अवस्था में बसवा (दौसा) लाया गया और यहीं उनका ईलाज किया गया। यहीं पर सांगा का चबूतरा बना है।
  • इस युद्ध के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की थी।
  • घायल सांगा बाबर को पराजित करने की योजना बनाने के लिए ईरिच के मैदान में आ पहुँचा। सांगा ने शपथ ली थी ’’मैं दुश्मन को पराजित किए बिना मेवाड़ का द्वार नहीं देखुंगा।’’ परन्तु सांगा के सहयोगियों को पता था कि इस बार मेवाड़ की पराजय निश्चित है। इसीलिए उन्होंने सांगा के विष दे दिया और इसके प्रभाव से 30 जनवरी 1528 को कालपी (उत्तरप्रदेश) नामक स्थान पर सांगा की मृत्यु हो गई।
  • सांगा का दाह संस्कार माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) में हुआ था, यहीं पर सांगा की छतरी बनी हुई है।

विक्रमादित्य (1531-1536) –

  • विक्रमादित्य अल्पायु में मेवाड़ का शासक बना। इसलिए उसकी मां कर्मावती उसकी संरक्षिका बनी।
  • इनकी अल्पायु का फायदा उठाकर गुजरात के बहादुरशाह ने 1533 में मेवाड़ पर आक्रमण किया। विक्रमादित्य की माता कर्मावती ने 24 मार्च, 1533 को रणथम्भौर दुर्ग व काफी धन देकर बहादुरशाह से संधि कर ली।
  • 1534 ई. में बहादुरशाह ने मेवाड़ पर पुनः आक्रमण कर दिया, कर्मावती ने अपने दोनों पुत्रों विक्रमादित्य और उदयसिंह को उनके ननिहाल बूँदी भेज दिया।
  • कर्माावती ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए अपने दूत पद्मशाह के साथ मुगल बादशाह हुमायुँ को राखी भेजी, परन्तु हुमायुँ ने समय पर सहायता नहीं की।
  • देवलिया (प्रतापगढ़) के रावत बाघसिंह को महाराणा का प्रतिनिधि बनाया। चित्तौड़ दुर्ग का अन्तिम समय निकट देखकर 5 मार्च 1535 ई. को रावत बाघसिंह व राणा सज्जा सिंह के नेतृत्व में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग के गेट खोल दिए और वीरगति को प्राप्त हो गये।
  • कर्मावती ने 1300 महिलाओं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़ का दूसरा साका था।
  • मेवाड़ पर बहादुरशाह का अधिकार हो गया।
  • 1535 ई. में हुमायूँ के गुजरात आक्रमण का लाभ उठाकर विक्रमादित्य ने पुनः चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया।
  • 1536 ई. में बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी और स्वयं मेवाड़ का शासक बन गया।

बनवीर (1536-37) –

  • बनवीर पृथ्वीराज सिसौदिया की पासवान पुतल दे का पुत्र था।
  • इसने चित्तौड़गढ़ में तुलजा भवानी का मंदिर और नौकोंठा महल का निर्माण करवाया।
  • बनवीर उदयसिंह को मारना चाहता था। लेकिन मेवाड़ की स्वामीभक्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर उदयसिंह को सुरक्षित कुम्भलगढ़ दुर्ग पहुँचा दिया। यहाँ के किलेदार आशा देवपुरार ने आश्रय देकर उदयसिंह को अपना भतीजा बताकर कुम्भलगढ़ में ही उसका पालन-पोषण किया।

महाराणा उदयसिंह (1537-1572 ई.) –

  • उदयसिंह का 1537 ई. में कुंभलगढ़ के दरबार में 15 वर्ष की अल्पायु में राज्याभिषेक किया गया।
  • 1540 ई. में कुम्भलगढ़ किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ।
  • 1540 ई. में उदयसिंह ने मेवाड़ी सरदारों के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उदयसिंह ने मावली (उदयपुर) नामक स्थान पर बनवीर की सेना को पराजित किया और इस युद्ध में बनवीर मारा गया। उदयसिंह ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। मारवाड़ के राव मालदेव ने इस युद्ध में उदयसिंह की सहायता की थी।
  • 1544 ई. में शेरशाह सूरी पर मेवाड़ पर आक्रमण के लिए आया, तब आक्रमण से पहले जहाजपुर में ही उदयसिंह ने शेरशाह सूरी को चित्तौड़गढ़ दुर्ग की चाबियाँ सौंप दी और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
  • अफगानों से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम राजा उदयसिंह था।
  • शेरशाह सूरी ने अपने दूत ख्वास खाँ को चित्तौड़गढ़ दुर्ग में नियुक्त कर दिया।
  • 24 जनवरी 1557 ई. को अजमेर के अफगानी हाकिम हाजी खान व राव मालदेव की संयुक्त सेना ने उदयसिंह की सेना को हरमाड़ा के युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया।
  • उदयसिंह ने 1559 ई. में उदयपुर नगर बसाया और उदयसागर झील का निर्माण करवाया। उदयपुर को नई राजधानी बनाया।
  • 1562 ई. में अकबर ने नागौर के किलेदार जयमल राठौड़ को हराकर नागौर पर कब्जा कर लिया। जयमल राठौड़ महाराणा उदयसिंह की शरण में चित्तौड़ आ गया।
  • मालवा का शासक बाजबहादुर भी अकबर से हारने के बाद 1562 ई. मेें उदयसिंह की शरण में आ गया था।
  • अकबर के इन्हीें दो विद्रोहियों को शरण देने के कारण उसने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। 23 अक्टूबर 1567 ई. को अकबर की सेना ने चित्तौड़गढ़ किले पर घेरा डाला।
  • उदयसिंह दुर्ग की जिम्मेदारी जयमल-फत्ता को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियों में चला गया।
  • 5 माह की लड़ाई के बाद मुगलों ने किले के पास दो सुरंग बनाकर उसमें बारूद भरकर चित्तौड़गढ़ किलले की दीवार को उड़ा दिया। 23 फरवरी, 1568 की रात को जयमल राठौड़ के नेतृृत्व में राजपूत दीवार की मरम्मत कर रहे थे, उसी समय अकबर ने जयमल राठौड़ को गोली मार दी।
  • अगले दिन चित्तौड़ किले के दरवाजे खोले गए और राजपूतों ने मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। जयमल राठौड़ व फत्ता सिसोदिया व कल्ला राठौड़ वीरगति को प्राप्त हो गए।
  • फत्ता सिसोदिया की पत्नी फूल कंवर के नेतृत्व में 7000 राजपूत महिलाओं ने जौहर किया। यह चित्तौड़ का तीसरा साका था।
  • अब चित्तौड़गढ़ पर अकबर का अधिकार हो गया। उसने चित्तौड़ में आसफ खाँ को प्रशासक नियुक्त कर दिया।
  • अकबर ने जयमल-फत्ता की गजारुढ़ पाषाण मूर्तियाँ आगरा के किले के बाहर स्थापित की। बीकानेर का महाराजा रायसिंह इन मूर्तियों को जूनागढ़ (बीकानेर) ले आया। कालान्तर में औरंगजेब द्वारा इन्हें नष्ट कर दिया गया।
  • महाराणा उदयसिंह द्वारा गोगुन्दा को राजधानी बनाया गया। 28 फरवरी 1572 को उदयसिंह की मृत्यु हो गई। उदयसिंह की छतरी गोगुंदा (उदयपुर) में है।

महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) –

  • महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को कुम्भलगढ़ किले में कटारगढ़ के पास जूनी कचहरी में हुआ।
  • महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी का शेर, पाथल, मेवाड़ का रक्षक, वीर शिरोमणि व मेवाड़ का केसरी उपाधियों से विभूषित किया जाता है।
  • सलूंबर के रावत कृष्णदास व देवगढ़ के रावत सांगा ने प्रमुख सामन्तों की सहमति से जगमाल को हटाकर 28 फरवरी 1572 ई. को गोगुंदा में प्रताप का राज्याभिषेक कर दिया। तब जगमाल नाराज होकर अकबर के पास चला गया।

अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए भेजे गये 4 शिष्टमंडल –

दूतों का नाम वर्ष
1. जलाल खाँ कोरची नवम्बर, 1572
2. मानसिंह जून, 1573
3. भगवंतदास सितम्बर, 1573
4. टोडरमल दिसम्बर, 1573
  • अकबर के सेनापति मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य 18 जून 1576 ई. को हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था।
  • हल्दीघाटी के युद्ध को मेवाड़ की थर्मोपल्ली, खमनौर का युद्ध, गोगुंदा का युद्ध कहा जाता है।
  • महाराणा प्रताप की सेना ने लोसिंग गाँव (राजसमन्द) में पड़ाव डाला और मानसिंह की सेना ने मोलेला गाँव (राजसमंद) में पड़ाव डाला।
  • महाराणा प्रताप की सेना में हरावल सेना का नेतृत्व हकीम खां सूरी और चन्द्रावल सेना का नेतृत्व राणा पूंजा भील ने किया था। अकबर की सेना में मानसिंह कच्छवाहा प्रधान सेनापति था। इनकी हरावल सेना का नेतृत्व जगन्नाथ कच्छवाहा और चन्द्रावल सेना का नेतृतव मिहत्तर खां ने किया था।
  • प्रताप का घोड़ा चेतक और हाथी लूणा व रामप्रसाद थे। मानसिंह का हाथी मरदाना और अन्य मुगल हाथी रणमंदिर, गजमुक्ता, गजराज थे।
  • जब महाराणा प्रताप युद्ध में घायल होने गए, तब उनका राजचिन्ह झाला बिंदा ने धारण किया और प्रताप का ईलाज कोल्यारी गांव (उदयपुर) में करवाया गया।
  • प्रताप का घोड़ा चेतक मरदाना हाथी के सूंड में लगे खंजर से घायल हो गया। चेतक का स्मारक ब्लीचा (राजसमंद) में बना है।
  • 13 अक्टूबर 1576 को अकबर स्वयं सेना लेकर गोगुन्दा आया और मेवाड़ पर आक्रमण कर नवम्बर 1576 में उदयपुर को जीत लिया और उदयपुर का नाम बदलकर ’मुहम्मदाबाद’ रख दिया।
  • अकबर ने शाहबाज खां को प्रताप के खिलाफ भेजा। शाहबाज खाँ ने 1577 में कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया, परन्तु वह असफल रहा। फिर 1578 ई. में कुंभलगढ़ को जीत लिया और कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कुंभलगढ़ को जीतने वाला एकमात्र मुस्लिम सेनापति शाहबाज खाँ था।
  • अकबर ने 1580 में अब्र्दुरहीम खान-ए-खाना को प्रताप को समझाने के लिए भेजा। प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने शेरपुर पर आक्रमण कर अब्दुर्रहीम के परिवार को कैद कर लिया। तब प्रताप इनसे नाराज हो गए और उन्होंने रहीम के परिवार को ससम्मान वापस छोड़ कर आने को कहा। प्रताप के इस व्यवहार से रहीम बहुत प्रभावित हुए और वह वापस लौट गये।
  • चुलिया गाँव के समीप प्रताप के मंत्री भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने महाराणा प्रताप को 25 लाख व 2 हजार सौने की अशर्फियाँ भेंट कर आर्थिक सहायता की। इसलिए भामाशाह को ’मेवाड़ का उद्धारक’’मेवाड़ का कर्ण’ कहा जाता है।
  • प्रताप की सेना व अमरसिंह ने अक्टूबर 1582 में दिवेर पर आक्रमण किया। दिवेर का किलेदार सेरिमा सुल्तान खाँ था। युद्ध के दौरान अमरसिंह ने सुल्तान खाँ पर भाले का इतना जबरदस्त वार किया कि भाला सुल्तान खाँ व उसके घोड़े के आर-पार हो गया। सुल्तान खाँ के मरते ही बाकी बची मुगल सेना भाग गई। कर्नल जेम्स टाॅड ने दिवेर के युद्ध को ’मेवाड़ का मैराथन’ कहा है।
  • 1585 ई. महाराणा प्रताप ने लूणा चावडिया को पराजित कर चावण्ड पर अधिकार कर लिया।
  • धनुष बाण की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए प्रताप के पैर में चोट लगी, जिससे 19 जनवरी, 1597 को चावण्ड में प्रताप की मृत्यु हो गई। प्रताप का अंतिम संस्कार बाडोली गाँव के निकट केजड़ बाँध किनारे किया गया जहाँ प्रताप की 8 खंभों की छतरी बनी है।
  • प्रताप के दरबार में चक्रपाणि मिश्र व जीवधर जैसे विद्वान थे।

महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.) –

  • अकबर ने सलीम को मेवाड़ अभियान हेतु नियुक्त किया, परन्तु सलीम ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। लेकिन अकबर ने उदयपुर पर आक्रमण किया। ऊँटाला के किले पर जहाँगीर का अधिकार हो गया, इस किले को वापस प्राप्त करने के लिए अमरसिंह प्रथम ने सेना के साथ आक्रमण किया। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ और मुगल सेना पराजित हुई, जहाँगीर वापस दिल्ली चला गया।
  • 1605 ई. में अकबर की मृत्यु हो गयी, इनके बाद जहाँगीर सम्राट बना। जहाँगीर ने सम्राट बनते ही मेवाड़ पर अभियान लगातार जारी रखे।
  • जहाँगीर ने 1605 ई. में शहजादा परवेज, जफर खाँ, सगर और आसिफ खाँ को मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा। देबारी के पास दोनों पक्षों का अनिर्णायक युद्ध हुआ।
  • 1608 ई. में महावत खाँ को आक्रमण के लिए भेजा, परन्तु असफल रहे।
  • 1609 ई. में अब्दुल्ला खाँ व 1611 ई. में राजा बासु को नियुक्त किया गया व 1613 ई. में मिर्जा अजीज कोका को भेजा। इस समय उन्होंने केवल मेवाड़ में नुकसान किया और कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर पाये।
  • 1613 ई. में जहाँगीर स्वयं दिल्ली से अजमेर पहुँचा और शहजादा खुर्रम को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व किया। जहाँगीर 18 नवम्बर 1613 से 10 नवम्बर 1616 तक अजमेर के मैगजीन दुर्ग में ही रहा।
  • कर्णसिंह व खुर्रम के बीच 5 फरवरी 1615 ई. को संधि हुई। इस संधि की प्रमुख शर्तेंं निम्न थी –
  • स्वयं महाराणा खुर्रम के समक्ष आकर संधि करेगा, महाराणा मुगल दरबार में नहीं जाएगा। इसकी जगह उसका ज्येष्ठ पुत्र मुगल दरबार में उपस्थित होगा।
  • चित्तौड़ का किला लौटा दिया जाएगा, परन्तु इसके परकोटा का निर्माण व मरम्मत नहीं की जाएगी।
  • कुँवर कर्णसिंह 1000 घुड़सवारों के साथ मुगल दरबार में रहेगा।
  • मेवाड़ को वैवाहिक सम्बन्धों के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • मुगल दरबार में मेवाड़ की ओर से सर्वप्रथम उपस्थित होने वाला राजा कर्णसिंह था।
  • मुगलों की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक अमरसिंह प्रथम था।
  • 26 जनवरी 1620 ई. में अमरसिंह प्रथम की मृत्यु हो गई। इनका अंतिम संस्कार आहड़, उदयपुर (महासतियाँ) में किया गया। यहाँ अमरसिंह प्रथम की छतरी भी बनी है।
  • आहड़ (उदयपुर) मेवाड़ के महाराणाओं का शाही शमशान है, यहाँ की प्रथम छतरी अमरसिंह प्रथम की है।

महाराणा कर्णसिंह (1620-1628) –

  • कर्णसिंह मेवाड़ का प्रथम शासक था, जो मुगल दरबार में उपस्थित हुआ।
  • कर्णसिंह के शासनकाल में 1622 ई. में शहजादा खुर्रम ने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर मेवाड़ आ गया। कर्णसिंह ने उसे पहले देलवाड़ा की हवेली (उदयपुर) में व बाद में जगमंदिर में शरण दी।

जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.) –

  • जगतसिंह ने मेवाड़-मुगल संधि 1615 का उल्लंघन कर चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत प्रारम्भ की। जिससे बादशाह शाहजहाँ नाराज हो गये।
  • जगतसिंह प्रथम ने उदयपुर में 1651 ई. में जगदीश मंदिर (सपनों से बना मंदिर) का निर्माण करवाया। इस मंदिर में पंचायतन शैली का प्रयोग किया गया। यह मंदिर अर्जुन की देखरेख में बना, जिसके वास्तुकार भाणा व उसके पुत्र मुकुन्द थे।
  • इसके समय में कृष्ण भट्ट द्वारा जगन्नाथराय प्रशस्ति 1652 में लिखी गई।
  • उदयपुर में जगदीश मंदिर के पास धाय माँ नौजु बाई के मंदिर का निर्माण करवाया।
  • इन्होंने अपने पिता कर्णसिंह द्वारा प्रारम्भ किए गए जगमंदिर का 1651 ई. में निर्माण पूर्ण करवाया।

महाराणा राजसिंह प्रथम (1652-1680) –

  • महाराणा राजसिंह प्रथम शाहजहाँ व औरंगजेब के समकालीन थे।
  • राजसिंह के राज्याभिषेक पर शाहजहाँ ने इनके लिए राणा का खिताब, हाथी, घोड़े आदि भेज तथा 5000 जात व सवार का मनसब प्रदान किया।
  • राजसिंह प्रथम टीका दौड़ एवं तुलादान पद्धति प्रारंभ करने वाला प्रथम राजा था।
  • इन्होंने अपने पिता जगतसिंह द्वारा प्रारम्भ किए गए चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत का कार्य किया।
औरगंजेब व राजसिंह के मध्य तनाव के कारण –

1. किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति राजसिंह से प्रेम करती थी और 1660 ई. में राजसिंह ने चारुमति से विवाह कर लिया। परन्तु औरगंजेब भी चारुमति से शादी करना चाहता था। चारुमति को लेकर दोनों के मध्य विवाद हो गया।
2. औरंगजेब हिन्दू मंदिरों व मूर्तियों को नष्ट करवाता था।
3. हिन्दुओं पर जजिया कर लगाता था।
4. राजसिंह ने औरंगजेब के शत्रु अजीतसिंह व दुर्गादास को शरण दी थी।

  • राजसिंह प्रथम ने अपने सेनापति रतनसिंह चूंडावत को औरंगजेब के खिलाफ भेजा।
  • रतनसिंह चूंडावत सलूम्बर का शासक था। युद्धस्थल में रतनसिंह चूंडावत ने अपनी पत्नी सहल कंवर (हाड़ी रानी) से निशानी मांगी थी, तब सहल कंवर ने अपना शीश काट दे दिया।
  • औरंगजेब ने 2 अप्रैल 1679 को जजिया कर लगाया। तब राजसिंह ने पत्र लिखकर इनका विरोध किया।
  • औरंगजेब के खिलाफ जाकर राजसिंह ने वृंदावन से मूर्तियाँ लेकर आये गोसाईयों को शरण दी।
  • राजसिंह प्रथम ने नाथद्वारा (राजसमंद) में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • इन्होंने कांकरौली (राजसमंद) में द्वारिकाधीश मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • महाराणा राजसिंह ने राजसमंद झील का निर्माण करवाया व उसके पास राजनगर नाम से एक कस्बा बसाया।
  • राजसिंह की पत्नी रामरस दे ने देबारी (उदयपुर) में जया बावड़ी/त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया।

महाराणा जयसिंह (1680-1698) –

  • महाराणा जयसिंह ने 1685 से 1691 ई. के मध्य गोमती नदी का पानी रोककर जयसमंद झील का निर्माण करवाया।
  • 1680 ई. में जयसिंह ने जब शासन कार्य संभाला, तब मेवाड़-मुगल संघर्ष चल रहा था। महाराणा जयसिंह व औरंगजेब दोनों ही इस संघर्ष को समाप्त करना चाहते थे। जयसिंह ने कुछ संघर्ष करने के बाद 24 जून, 1681 ई. में राजसमंद झील के किनारे औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम से संधि कर ली।
  • जयसिंह ने जजिया कर के बदले में औरगंजेब को पुर, मांडल व बदनौर के परगने दिये।

महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1710 ई.) –

  • मारवाड़ के शासक अजीतसिंह, जयपुर के सवाई जयसिंह व मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय के मध्य 1708 में ’देबारी समझौता’ हुआ।

देबारी समझौते की शर्तें निम्न थीं –

1. अजीतसिंह को मारवाड़ का व सवाई जयसिंह को आमेर का राजा बनाने में महाराणा अमरसिंह सहायता करेंगे।
2. महाराणा अमरसिंह द्वितीय की पुत्री चन्द्रकुँवरी और सवाई जयसिंह की पुत्री सूरजकुंवरी का विवाह सवाई जयसिंह से किया गया। यह तय हुआ कि चन्द्रकुँवरी से उत्पन्न संतान को की आमेर का उत्तराधिकारी बनाया जायेगा।

  • मेवाड़ के महाराणा की सहायता से अजीतसिंह व सवाई जयसिंह दोनों अपना राज्य पुनः प्राप्त करने में सफल रहे।
  • महाराणा अमरसिंह द्वितीय द्वारा अमरशाही पगड़ी प्रचलित की गई।

महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710-1734) –

  • महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने अपनी पुत्री शंकुतला के लिए उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी का निर्माण करवाया।
  • इन्होंने वैद्यनाथ मंदिर का निर्माण कररवाया।
  • सवाई जयसिंह ने आमेर से मेवाड़ के शासक संग्राम सिंह द्वितीय के पास पहुँच कर मराठों के विरुद्ध राजपूतों को संगठित करने के लिए एक सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई। यह सम्मेलन 17 जुलाई 1734 ई. को हुरड़ा नामक स्थान पर बुलाया गया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय को बनाया गया।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734-1751) –

  • 17 जुलाई 1734 ई. को आयोजित हुरड़ा सम्मलेन की अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।
  • इनके शासनकाल में सर्वप्रथम मराठों ने मेवाड़ पर आक्रमण कर मेवाड़ रियासत से कर वसूला।
  • इन्होंने 1746 ई. में उदयपुर में जगनिवास महल का निर्माण करवाया।
  • इनके दरबारी कवि नेकराम थे, जिन्होंने ’जगत विलास’ नामक ग्रंथ लिखा।

महाराणा भीमसिंह (1778-1828) –

  • महाराणा भीमसिंह कमजोर और आलसी शासक था। इनके शासनकाल में चुंडावतों व शक्वावतों का पारस्परिक विरोध एवं मेवाड़ में मराठों का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया। सिंधिया व होल्कर मेवाड़ के इलाकों में लूटमार करते थे।
  • मेवाड़ के शासक भीमसिंह की पुत्री कृृृृष्णाकुमारी की सगाई मारवाड़ के शासक भीमसिंह राठौड़ के साथ हुई थी, परन्तु भीमसिंह राठौड़ की मृृत्यु हो गई। तब कृृष्णाकुमारी की पुनः सगाई आमेर के शासक जगतसिंह द्वितीय के साथ हो गयी। इसी कारण भीमसिंह राठौड़ का भाई मानसिंह राठौड़ नाराज हो गया।
  • कृृष्णाकुमारी को लेकर आमेर (जयपुर) के शासक जगतसिंह द्वितीय और मारवाड़ (जोधपुर) के शासक मानसिंह राठौड़ के मध्य 1807 में गिंगोली (परबतसर,डीडवाना-कुचामन) का युद्ध हुआ।
  • अमीर खाँ पिण्डारी के दबाव में आकर महाराणा भीमसिंह ने अपनी ही पुत्री कृष्णाकुमारी की हत्या करनी पड़ी।
  • 13 जनवरी 1818 को महाराणा भीमसिंह ने अंग्रेजों से संधि कर ली। इस संधि के तहत उदयपुर की रक्षा का भार अंग्रेज कम्पनी के हाथों में सौंप दिया, इसके बदल में एक निश्चित राशि ’खिराज’ के रूप में प्राप्त करेगी। इस संधि पर मेवाड़़ की तरफ से ठाकुर अजीतसिंह चुंडावत ने व अंग्रेज अधिकारी चाल्र्स मैटकाफ ने हस्ताक्षर किये।

महाराणा स्वरूपसिंह (1842-1861) –

  • महाराणा स्वरूपसिंह ने स्वरूपशाही सिक्कों का प्रचलन किया। जिनके एक तरफ ’चित्रकूट उदयपुर’ व दूसरी तरफ ’दोस्ती लंदन’ लिखा हुआ था।
  • 1857 की क्रांति में महाराणा स्वरूपसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया। महाराणा ने अपनी सेना कैप्टन शाॅवर्स को सौंप दी थी। नीमच से भागे 40 अंग्रेजों को इन्होंने उदयपुर में जगमंदिर में शरण दी थी।
  • 15 अगस्त 1861 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह ने उदयपुर में सती प्रथा पर रोक लगाई। इनके समय में डाकन प्रथा व समाधि प्रथा पर भी रोक लगाई गई।
  • महाराणा स्वरूपसिंह ने विजय स्तम्भ की मरम्मत करवायी थी और स्वरूपसागर झील का निर्माण करवाया था।

महाराणा सज्जनसिंह (1874-1884) –

  • 14 फरवरी, 1878 ई. को महाराणा सज्जनसिंह ने अंग्रेजी सरकार के साथ ’नमक समझौता’ किया, जिससे कई लोगों का रोजगार छिन गया और नमक महंगा हो गया।
  • महाराणा सज्जनसिंह ने 20 अगस्त 1880. को शासन प्रबन्ध व न्याय कार्य के लिए ’महेन्द्रराज सभा’ का गठन किया।
  • इनके समय में गवर्नर जनरल लाॅर्ड नार्थबुक उदयपुर आये, यह उदयपुर आने वाले प्रथम गवर्नर जनरल थे।
  • महाराणा सज्जनसिंह ने श्यामलदास को ’कविराज’ की उपाधि दी।
  • इन्होंने सज्जनगढ़ किले का निर्माण करवाया।

महाराणा फतेहसिंह (1884-1930) –

  • महाराणा फतेहसिंह ने 1889 ई. में सज्जन निवास बाग में ’वाल्टर कृृत राजपूत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की।
  • अंग्रेजों द्वारा इन्हें 1897 ई. में ’ऑर्डर ऑफ द क्राउन ऑफ इंडिया’ का खिताब दिया गया।
  • दिल्ली दरबार (1903 ई.) में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम का राज्यारोहण आयोजित किया गया था। इसमें महाराणा फतेहसिंह शामिल होने जा रहे थे, तब केसरसिंह बारहठ ने उन्हें ’चेतावनी रा चूंगट्या’ नामक सोरठा लिखकर भेजा था। इसे पढ़कर वह बिना शामिल हुए वापस लौट आए थे।

महाराणा भूपालसिंह (1930-1955) –

  • महाराणा भूपालसिंह मेवाड़ के सिसोदिया वंश के अंतिम शासक थे।
  • राजस्थान के एकीकरण के दौरान इन्हें 18 अप्रैल 1948 ई. को राजस्थान का महाराज प्रमुख बनाया गया। इस पद पर रहते हुए 1955 में इनकी मृृत्यु हो गई।

निष्कर्ष :

आज के आर्टिकल में राजस्थान के इतिहास के अंतर्गत हमनें आपको मेवाड़ के इतिहास(Mewar ka itihas) की पूरी जानकारी दी है। हम आशा करतें है कि आप हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से संतुष्ट होंगें…धन्यवाद

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