इस आर्टिकल में हम राजस्थान के लोकदेवता(Rajasthan Ke Lokdevta) रामदेव जी, गोगा जी, तेजाजी, देवनारायण जी, पाबू जी, हड़बू जी, मेहा जी मांगलिया, वीर कल्ला जी राठौड़, मल्लीनाथ जी, तल्लीनाथ जी, डूँगरजी-जवाहरजी और राजस्थान के प्रमुख लोक देवताओं के बारे में विस्तार से जानकारी देने वाले है , पूरा टॉपिक अच्छे से पढ़ें। आर्टिकल को नए जिलों के आंकड़ों के अनुसार तैयार किया गया है।
राजस्थान की भूमि संतों और देवी- देवताओं की पूण्य भूमि रही है। इसलिए हमें खुद को सोभाग्यशाली समझना चाहिए , कि हम इस पूण्य भूमि के निवासी है। दोस्तो अगर आप राजस्थान से जुडी किसी भी परीक्षा की तैयारी कर रहें है तो यह आर्टिकल आपके लिए फायदेमंद साबित होगा।अगर आप इस टॉपिक(राजस्थान के लोकदेवता) को पूरा करना चाहते हो तो इसे पूरा पढ़ें।
रामदेव जी का जन्म उडुकासमेर गाँव, शिव तहसील (बाड़मेर) में भाद्रपद शुक्ल द्वितीया (बाबे री बीज) को हुआ था।
रामदेव जी को अर्जुन के वंशज के रूप में पूजा जाता है।
इन्होंने बचपन में भैरव नामक क्रूर राक्षस का वध सातलमेर में किया था।
रामदेव जी का सबसे लम्बा गीत ’ब्यावले’ है। इनकी आस्था में भक्तों द्वारा ब्यावले गीत बांचे जाते है।
इनकी ध्वजा को ’नेजा’ कहा जाता है।
इनके मन्दिर को ’देवरा’ कहा जाता है।
रामदेव जी के मेघवाल जाति के भक्त ’रिखिया’ कहलाते है।
रामदेव जी का रात्रि में होने वाला जागरण ’जम्मा’ कहलाता है।
रामदेवरा जाने वाली पैदल यात्री को ’जातरू’ कहा जाता है।
रामदेव जी के चमत्कारी जीवन गाथाओं का यशगान ’परचा’ में होता है। इन्होंने पहला परचा (चमत्कार) माता मैणादे को दिया।
रामदेव जी ने पंच पीपली नामक स्थान पर मक्का से आये 5 पीरों को परचा दिया था। मक्का से आये पाँच पीरों ने जब रामदेव जी की परीक्षा लेनी चाही, तब रामदेव जी ने उनको मक्का में ही भूल आये, कटोरों में भोजन करवाया, तब इन पीरों ने रामदेव जी को ’पीरों का पीर’ कहा।
इन्होंने हिन्दू धर्म के शुद्धिकरण के लिये ’परावर्तन (शुद्धिकरण) आन्दोलन’ चलाया था।
रामदेव जी के मेले पर कामड़ जाति की विवाहित महिलाओं द्वारा ’तेरहताली नृत्य’ किया जाता है।
रामदेव जी कवि भी थे, इन्होंने ’चौबीस बाणियां’ नामक पुस्तक लिखी थी।
इनका मेला भाद्रपद शुक्ला द्वितीया से भाद्रपद शुक्ल एकादशी तक रूणेचा (जैसलमेर) में भरता है। इनका मेला ’साम्प्रदायिक सद्भाव का मेला’ है। इनके मेले को ’मारवाड़ का कुम्भ’ कहा जाता है।
रामदेव जी के समकालीन देवता मल्लीनाथ व हड़बू जी थे।
लोकदेवता हड़बू जी इनके मौसेरे भाई थे।
रामदेव जी के सहयोगी हरजी भाटी, रतना राईका, लक्खी बंजारा है।
रामदेव जी ने अपनी बहन सुगना बाई का विवाह पुगलगढ़ के परिहार राव किशनसिंह के साथ किया था।
मानसरोवर की पाल के किनारे रूणिचा में ’पर्चा बावड़ी’ स्थित है।
रूणिचा (जैसलमेर) में ’रामसरोवर तालाब’ भी है।
रामदेव की फड़ का सर्वाधिक वाचन जैसलमेर (बीकानेर) में होता है। नायक या कामड़ जाति के भोपे रावणहत्था वाद्ययंत्र पर रामदेव जी की फड़ का वाचन करते है।
रामदेव जी को पोकरण का क्षेत्र मल्लीनाथ जी ने दिया था। रामदेव जी ने अपनी भतीजी को पोकरण दहेज में दिया।
रामदेव जी की शिष्या आई माता थी।
इनके जयकारे ’बादली’ कहलाते है।
रामदेव जी के पगल्ये पूजे जाते है। पगल्ये रखने का स्थान ’ताख/मालिया’ कहलाता है।
इनकी तांती ’फुलड़ी’ कहलाती है।
रामदेव जी का गीत लोकदेवताओं में सबसे लम्बा लोकगीत माना जाता है।
रामदेवजी का वाहन नीला घोड़ा है।
इन्होंने ’कामड़िया पंथ’ चलाया।
इनको ’कुष्ठ निवारक देवता’ कहा जाता है।
रामदेव जी का प्रमुख मंदिर रामदेवरा (जैसलमेर) में स्थित है। इसका निर्माण महाराजा गंगासिंह ने 1931 ई. में करवाया था।
इनके मंदिर में कपड़े के घोड़े चढ़ाए जाते है।
रामदेव जी ने 1458 ई. में ’भाद्रपद शुक्ल एकादशी’ को रूणिचा (जैसलमेर) में रामसरोवर की पाल पर समाधि ली। इनसे एक दिन पहले डालीबाई ने जल समाधि ली थी।
रामदेव जी के मंदिर
रामदेवरा
रूणिचा (जैसलमेर)
दूसरा रामदेवरा
खुण्डियावास धाम (डीडवाना-कुचामन)
छोटा रामदेवरा
साबरकांठा (गुजरात)
मसुरिया पहाड़ी
जोधपुर
उण्डू काश्मीर
बाड़मेर
कोटड़ा
बाड़मेर
नवलगढ़
झुंझुंनूं
सुरताखेड़ा
चित्तौड़गढ़
अल्दीनो
अलवर
बिराठिया
ब्यावर
गोगा जी
लोकदेवता गोगा जी
गोगाजी का जीवन परिचय
उपनाम
साँपों के देवता, जाहरपीर, जीवित पीर, गोगापीर, नागराज
जन्म
946 ई. (1003 विक्रमी संवत्)
जन्मस्थान
ददरेवा (चूरू)
माता
बाछल दे
पिता
जेवर सिंह चौहान
पत्नी
केलम दे
पुत्र
केसरिया कुंवर
पौत्र
सामंत चौहान
गुरु
गोरखनाथ
घोड़ी
नीला घोड़ी (गोगा बापा)
चचेरे भाई
अर्जन व सर्जन
शीर्षमेड़ी
ददरेवा (चुरू)
धुरमेड़ी
गोगामेड़ी (हनुमानगढ़)
गोगाजी की ओल्डी
सांचौर में बना गोगाजी का मंदिर
मेला
गोगामेड़ी, भाद्रपद कृष्ण नवमी
प्रतीक चिह्न
भाला लिए घुड़सवार व सर्प
सहयोगी
भज्जु कोतवाल, जवाहर पाण्ड्या
मुख्य मंदिर
गोगामेड़ी (हनुमानगढ़)
गोगा जी का जन्म ददरेवा (चुरू) में 1003 विक्रम संवत् (946 ई.) में भाद्रपद कृष्ण नवमी को हुआ था।
गोगा जी को हिन्दू धर्म वाले ’विष्णु का अवतार’ मानते है।
हिन्दू इन्हें ’नागराज’ तथा मुस्लिम इन्हें ’गोगापीर’ के रूप में पूजते है।
राजस्थानी लोकगीतों में गोगाजी को ’बांगड़ का राजा’ भी कहा जाता है।
इनकी माता बाछल ने पुत्र प्राप्ति के लिए गोरखनाथ जी की तपस्या की।
गोगाजी के गुरु गोरखनाथ जी थे।
हल जोतने से पूर्व हल व हाली के 9 गाँठों की गोगा राखड़ी बाँधी जाती है। रक्षाबंधन के दिन बाँधी गई राखियाँ गोगानवमी के दिन खोले जाने की परम्परा है।
गोगाजी की ओल्डी किलौरियों की ढाणी, सांचौर जिले में है।
बीठू मेहा जी के द्वारा ’गोगा जी का रसावला’ नामक ग्रंथ लिखा गया है, जिसमें गोगा जी की वीरता का वर्णन है।
आशा बारहठ ने ’गोगा जी की पेड़ी’ नामक ग्रंथ लिखा है।
कुचामनी ख्याल ने ’गोगा जी की रा ख्याल’ नामक ग्रंथ लिखा है।
गोगाजी के गीत ’छावली’ कहलाते है।
गोगा जी की ध्वजा को ’निसाण’ कहा जाता है।
गोगा जी के मुस्लिम पुजारी ’चायल’ कहलाते है।
गोगा जी की आराधना में श्रद्धालु सांकळ नृत्य करते है।
गोगाजी का मंदिर ’मेड़ी’ कहलाता है।
इनकी फड़ का वाचन डेरू व मांदल वाद्ययंत्र के साथ इनके भक्तों या भोपों द्वारा किया जाता है।
गोगा जी के मंदिर में आने वाले भक्त पीले रंग का वस्त्र पहनते है, उन्हें ’पूर्बिया’ कहते है।
गोगाजी का पत्थर पर उत्कीर्ण सर्प मूर्ति युक्त पूजास्थल/थान प्रायः गाँवों में खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है।
गोगा जी के विवाह के समय इनकी पत्नी केलम दे को एक सर्प ने डंस लिया, तो गोगाजी ने मंत्रों का उच्चारण करना शुरू कर दिया, तब पास रखी तेल की गर्म कड़ाई में सांप आकर गिरने लगे। तब नागों के देवता ’तक्षक नाग’ ने उनकी पत्नी को पुनःजीवित कर दिया था।
सर्प दंश के उपचार में गोगा जी की अर्चना की जाती है। गुरु गोरखनाथ ने ही इन्हें ’साँपों की सिद्धि’ प्रदान की थी।
भूमि विवाद को लेकर इनके चचेरे भाई अर्जुन व सर्जन ने महमूद गजनवी से मिलकर गोगा जी की गायों का अपहरण कर लिया। तब गोगा जी ने महमूद गजनवी के साथ 1024 ई. में अपने 47 पुत्रों के साथ महमूद गजनवी से युद्ध कर गायों को मुक्त करवाया। महमूद गजनवी ने इन्हें ’जाहरपीर’ की उपाधि प्रदान की।
गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) – यह स्थान ’धुरमेड़ी’ कहलाता है। यहीं पर लड़ते हुये गोगाजी का धड़ गिरा था। इस मकबरेनुमा मंदिर का निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने करवाया था। इसका वर्तमान स्वरूप महाराजा गंगासिंह ने बनवाया था। इसकी ड्यौढ़ी पर ’बिस्मिलाह’ शब्द अंकित है।
शीर्षमेड़ी (ददरेवा, चुरू) – यह स्थान ’शीर्षमेड़ी’ कहलाता है। युद्ध में लड़ते वक्त गोगा जी का सिर यहीं गिरा था, यह गोगाजी का जन्मस्थान भी है। यहाँ मेला भाद्रपद कृष्ण नवमी को भरता है।
गोगाजी के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है –
’’गाँव-गाँव खेजड़ी, गाँव-गाँव गोगा’’
तेजाजी
तेजा जी महाराज
तेजाजी का जीवन परिचय
उपनाम
काला बाला का देवता, धौलिया वीर, साँपों का देवता, कृषि कार्यों के उपकारक, गायों का मुक्तिदाता, काळा व बाळा का देवता
जन्म
1073 ई. (माघ शुक्ल चतुर्दशी)
जन्मस्थान
खड़नाल (नागौर)
पिता
ताहड़ जी जाट
माता
राजकंवर थाकण
पत्नी
पैमल दे
घोड़ी
लीलण
प्रतीक चिह्न
तलवार धारी अश्वारोही, जीभ पर सर्पदंश करती हुई मूर्ति
कर्मस्थली
दुगारी (बूँदी)
प्रमुख पूजा स्थल
परबतसर (डीडवाना-कुचामन)
मेला
भाद्रपद शुक्ला दशमी
प्रमुख तीर्थ स्थल
बांसी डुंगारी (बूँदी)
तेजाजी का जन्म खड़नाल (नागौर) में 29 जनवरी, 1073 ई. को माघ शुक्ल चतुर्दशी को हुआ था।
तेजाजी के चबूतरे को थान व पुजारी को घोड़ला कहा जाता है।
तेजाजी का विवाह पेमल दे से हुआ था और इनका ससुराल पनेर गाँव (अजमेर) में था।
तेजाजी का मेला ब्यावर चौक (अजमेर) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को भरता है।
वीर तेजाजी पशु मेला परबतसर (डीडवाना-कुचामन) में श्रावण पूर्णिमा से भाद्रपद अमावस्या को भरता है। यह राजस्थान में आय की दृष्टि से सबसे बड़ा पशु मेला है।
तेजाजी का सबसे प्राचीन थान तेजा चौक (ब्यावर) में है।
किसान फसल बोने से पहले अच्छी फसल की कामना के लिए तेजागीत/तेजा टेर गाते है।
तेजाजी की कर्मस्थली बाँसी दुगारी गाँव (बूँदी) रही है।
तेजाजी सहरिया जनजाति के आराध्य देव हैं इनके नाम पर सीताबाड़ी (बारां) में तेजाजी का मेला भरता है।
तेजाजी की लीलण पर सवार मुख्य प्रतिमा परबतसर (डीडवाना-कुचामन) में है।
तेजाजी के भोपे भरनी वाद्ययंत्र बजाते है।
मेर के मीणाओं ने लाछा गुजरी की गायों को चुरा लिया था। तब गायों को छुड़वाने के लिए तेजाजी ने युद्ध किया तथा युद्ध से वापस आकर घायल अवस्था में साँप को अपनी जीभ पर सैंदरिया (ब्यावर) में डसवाया और उनकी मृत्यु हो गई।
तेजाजी की मृत्यु का समाचार लीलण द्वारा उनकी पत्नी पेमल दे तक पहुँचाया गया और पेमल दे सती हो गई। ऐसी मान्यता है कि सर्प दंश से पीड़ित व्यक्ति यदि दांये पैर में तेजाजी की तांती बांध ले तो विष नहीं चढ़ता।
तेजाजी का निर्वाण सुरसरा (अजमेर) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को हुआ।
तेजाजी के प्रमुख मंदिर –
खरनाल
नागौर
बांसी दुगारी
बूँदी
सेंदरिया
ब्यावर
सुरसरा
अजमेर
परबतसर
डीडवाना-कुचामन
भांवता
अजमेर
देवनारायण जी
देवनारायण जी
देवनारायण जी का जीवन परिचय
उपनाम
विष्णु का अवतार, आयुर्वेद का ज्ञाता, राज्य क्रांति के जनक, गुर्जर जाति के आराध्य देव
बचपन का नाम
उदय सिंह
जन्म
1243 ई.
जन्मस्थान
आसींद (भीलवाड़ा)
पिता
सवाई भोज
माता
सेढू खटाणी
पत्नी
पीपल दे
संतान
बाला व बाली
घोड़ा
लीलागर
मंदिर
आसींद (भीलवाड़ा), देवधाम-जोधपुरिया (टोंक)
समाधि स्थल
देवमाली (ब्यावर), देव डूँगरी (चित्तौड़गढ़)
देवनारायण जी का जन्म गौठ दड़ावता (आसीन्द, भीलवाड़ा) के पास मालासेरी के जंगलों में 1243 ई. में माघ शुक्ल षष्ठी को हुआ था।
देवनारायण जी बगड़ावत गुर्जर जाति के लोकदेवता माने जाते है।
बगड़ावत गुर्जर जाति के भोपों द्वारा जन्तर नामक वाद्ययंत्र के साथ बांची जाती है। सभी लोकदेवताओं की फड़ में यह सबसे प्राचीन व सबसे लम्बी फड़ है।
यह लोकदेवता पाबूजी के समकालीन थे।
2 सितम्बर 1992 को देवनारायण जी की फड़ पर 5 रु. का डाक टिकट जारी हुआ है। राजस्थान की एकमात्र फड़ जिस पर डाक टिकट जारी हुआ।
इनकी फड़ के साथ बगड़ावत कथा सुनायी जाती है।
देवनारायण जी का मुख्य मंदिर आसींद (भीलवाड़ा) में है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को मेला लगता है। देवनारायण जी के मंदिरों व देवरों में उनकी प्रतिमा के साथ ईटों की पूजा की जाती है। मंदिर में नीम के पत्तों का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
इन्होंने गोबर व नीम का औषधि के रूप में महत्त्व बताया। इसलिए इन्हें ’आयुर्वेद के ज्ञाता’ कहा जाता है।
देवनारायण जी ने भिनाय (केकड़ी) के शासक को मारकर अपने बड़े भाई महेन्दु को वहाँ का राजा बनाया। इसी कारण इन्हें ’राज्य क्रांति का जनक’ कहा जाता है।
देवनारायण जी ने 1290 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारियों से युद्ध करते हुए देवमाली (ब्यावर) में देह त्यागी थी।
7 सितम्बर 2011 को देवनारायण जी पर 5 रु. का डाक टिकट जारी हुआ।
देवनारायण जी के मंदिर –
देवमाली (ब्यावर) – यहीं पर देवनारायण जी ने देह त्यागी थी। यहीं पर इनके पुत्रों ने तपस्या की। यहीं प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को मेला भरता है।
देवधाम – जोधपुरिया (निवाई, टोंक) यहाँ पर देवनारायण की मुख्य प्रतिमा है। यहाँ दीवारों पर बगड़ावतों के शौर्य गाथाओं के चित्र बने हैं।
देव डूंगरी पहाड़ (चित्तौड़गढ़) – इस मंदिर का निर्माण राणा सांगा द्वारा करवाया गया था।
देवास (मध्यप्रदेश) में भी इनका मंदिर है।
भिनाय (अजमेर) में भी इनका मंदिर है।
पाबू जी
लोकदेवता पाबू जी
पाबू जी का जीवन परिचय
उपनाम
लक्ष्मण के अवतार, गौरक्षक देवता, ऊँटों के देवता, प्लेग रक्षक देवता, राड़फाड़ का देवता, अम्बुवाल, सिद्ध देव
जन्म
1239 ई.
जन्मस्थान
कोलूमण्ड (फलौदी)
माता
कमला दे
पिता
धांधल जी राठौड़
बड़े भाई
बूढ़ो जी
बहिन
सोना भाई, पेमा बाई
पत्नी
फूलम दे/सुप्यार दे
प्रतीक
भाला लिये अश्वारोही
घोड़ी
केसर कालमी
वाद्य यंत्र
रावणहत्था
सहयोगी
चाँदी डेमा व हरमल
गुरु
समरथ भारती
प्रतीक चिह्न
भाला लिये अश्वारोही, बांयी ओर झुकी पाग
मुख्य मंदिर
कोलूमण्ड (फलौदी)
मृत्यु
देचूँ (फलौदी), 1276 ई.
पाबू जी का जन्म कोलूमण्ड (फलौदी) में 1239 ई. में चैत्र अमावस्या को हुआ था।
मेहर जाति के मुसलमान इन्हें ’पीर’ मनाकर पूजा करते है और हिन्दू इन्हें ’लक्ष्मण का अवतार’ मानते है।
पाबूजी का मुख्य मंदिर कोलुमण्ड (फलौदी) में है। यहाँ का पुजारी राठौड़ होता है। इनका मेला कोलुमंड में प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को भरता है।
पाबूजी के भक्तों द्वारा थाली नृत्य किया जाता है।
पाबूजी के सहयोगी चांदा नायक, हरमल रेबारी व डेमा नायक है।
पाबूजी नारी सम्मान, गौरक्षा, वीरता, एवं शरणागत रक्षा के लिये प्रसिद्ध है।
ऊँट के स्वस्थ होने पर पाबूजी की फड़ का वाचन नायक जाति के भोपे रावण हत्थे वाद्ययंत्र के साथ करते है, यह राजस्थान की सर्वाधिक लोकप्रिय फड़ है।
मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी को ही है।
रेबारी जाति पाबू जी को अपना आराध्य देव मानती है।
पाबूजी के पवाड़े माठ वाद्ययंत्र के साथ रेबारी जाति के द्वारा गाये जाते है।
1276 ई. में पाबूजी के विवाह के समय जींदराव खींची ने देवल चारणी की गायें चुरा ली, तब पाबूजी बीच फेरों में से उठकर देवल चारण की घोड़ी केसर कालमी लेकर रवाना हो गये, देचू गाँव (फलौदी) में अपने बहनोई जायल नरेश जींदराव खींची से देवल चारणी की गायों को छुड़ाने हुए पाबूजी अपने अनेक साथियों के साथ वीर गति को प्राप्त हो गये।
मुगलकालीन पाटन शासक मिर्जा खां गौ हत्या में लिप्त रहता था, उनके विरुद्ध भी पाबूजी ने युद्ध किया तथा गौहत्या रूकवाई।
पाबूजी से संबंधित रचना –
पाबूजी रा छन्द
बीठू मेहा
पाबूजी रा दोहा
लघराज
पाबू प्रकाश
आशिया मोडजी
पाबू सोरठा
रामनाथ कविया
पाबू जी री बात
लक्ष्मीकुमारी चुंडावत
राजस्थान के प्रमुख लोक देवता
हड़बू जी
हड़बू जी का जीवन परिचय
उपनाम
वचन सिद्ध, चमकारी महापुरुष, शकुन शास्त्र के ज्ञाता, योगी, संन्यासी
जन्म
भूंडेल ग्राम (नागौर)
पिता
मेहाजी
परिवार
साँखला राजपूत
गुरु
बालीनाथ
वाहन
सियार
मंदिर
बेगंटी (फलौदी)
मौसेरे भाई
रामदेव जी
हड़बू जी अपने पिता की मृत्यु के बाद भूंडेल गाँव छोड़कर फलौदी जिले के ’हरभम जाल’ नामक स्थान पर रहने लगे।
हड़बू जी के गुरु बालीनाथ थे। हड़बूजी शस्त्र त्याग देते है और बालीनाथ जी के शिष्य बन गये थे और दीक्षा लेकर समाज सुधार के कार्य किये। इन्होंने चाखू गाँव (फलौदी) में रहकर तपस्या की।
हड़बू जी का मंदिर बेंगटी गाँव (फलौदी) में है। इस मंदिर का निर्माण 1721 ई. महाराजा अजीत सिंह द्वारा करवाया गया। इनके मंदिर में मूर्ति के साथ छकड़ा गाड़ी की पूजा होती है।
हड़बू जी छकड़ा गाड़ी में पंगु गायों के लिए दूर-दूर से घास भरकर लाते थे।
इनकी सवारी सिया है।
इनके पुजारी सांखला राजपूत होते है।
हड़बू जी रामदेव जी के मौसेरे भाई थे।
हड़बू भी राव जोधा के समकालीन थे। इन्होंने राव जोधा को मेवाड़ के अधिकार से मंडोर मुक्त कराने हेतु आशीर्वाद दिया तथा कटार व फेन्टा भेंट की। मंडोर विजय के पश्चात् राव जोधा ने हड़बू जी को बेंगटी गाँव (फलौदी) अर्पण किया।
यह लोकदेवता बड़े सिद्ध योगी थे। ये जाति वर्ग का भेद किये बिना सबको कृतार्थ करते थे। ईश्वर स्मरण व सत्संग का महत्त्व बताते हुए इन्होंने निम्न माने जाने वाली जातियों में आध्यात्मिक चेतना जागृत की।
रामदेव जी ने समाधि लेने के बाद हड़बू जी को दर्शन देकर ’एक रामकटोरा (प्याला) व सोहन चिटिया (छड़ी)’ भेंट की थी।
रामदेवजी के समाधि लेने के आठवें दिन उन्होंने स्वयं जीवित समाधि ले ली थी।
हड़बू जी वचनसिद्ध, शकुन शास्त्र के ज्ञाता व करामाती माने जाते है।
मेहा जी मांगलिया
मेहा जी मांगलिया का जीवन परिचय
उपनाम
मांगलियों के इष्टदेव, उज्ज्वल छत्री
जन्मस्थान
तापू गाँव (जोधपुर ग्रामीण) या बापिणी गाँव (फलौदी)
पिता
कीतू जी
माता
मायड़ दे
परिवार
पंवार क्षत्रिय
घोड़ा
किरड़ काबरा
युद्ध
जैसलमेर के रणगंदेव भाटी से
समकालीन शासक
राव चूड़ा
मंदिर
बापिणी
मेहा जी मांगलिया का जन्म तापू गाँव (जोधपुर ग्रामीण) में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को हुआ।
इनका मुख्य मंदिर बापिणी गाँव (फलौदी) में है। यहाँ भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को मेला लगता है।
इनकी पूजा करने वाले भोपे अपने वंश में वृद्धि नहीं करते, वे गोद लेकर वंश चलाते है।
यह मारवाड़ के शासक राव चूण्डा के समकालीन थे।
इन्होंने अपनी माँ के साथ पुष्कर तीर्थ की यात्रा के दौरान पुष्कर की गायों की रक्षार्थ हेतु जैसलमेर के शासक राव राणंगदेव के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये।
’वीर मेहा प्रकाश’ की रचना जसदान बिठू ने की है।
वीर कल्ला जी राठौड़
उपनाम
चार हाथों वाले देवता, कल्याण, शेषनाग के अवतार, केहर, बाल ब्रह्माचारी, कमधज, योगी, दुल्हे के वेश में मरने वाले लोक देवता
जन्म का नाम
केसरसिंह
जन्म
1544 ई. (आश्विन शुक्ल अष्टमी)
जन्मस्थान
सामियाना गाँव (मेड़ता, नागौर)
पिता
आससिंह राठौड़
माता
श्वेत कुंवर
दादा
राव अचला जी
गुरु
योगी भैरवनाथ
वीर कल्ला जी राठौड़ का जन्म सामियाना गाँव (मेड़ता, नागौर) में 1544 ई. में आश्विन शुक्ल अष्टमी को हुआ था।
कल्ला जी की मुख्य पीठ रनेला/रूण्डेला (सलूम्बर) में है। यहाँ आश्विन शुक्ल अष्टमी को मेला भरता है।
इनका प्रमुख मंदिर सामलिया गाँव (डूँगरपुर) में है। यहाँ इनकी काले पत्थर की मूर्ति है और यहाँ केसर तथा अफीम चढ़ाई जाती है।
यह मेवाड़ के शासक उदयसिंह के समकालीन थे।
कल्ला जी जड़ी-बूटियों के ज्ञान व सिद्धियों के बल पर असाध्य रोग का इलाज किया करते थे। असाध्य रोगों के चिकित्सक थे।
अकबर के आक्रमण के समय 1568 ई. को कल्ला जी ने अपने ताऊ जयमल को कन्धे पर बैठाकर युद्ध किया था, इसलिए इन्हें दो सिर व चार हाथ वाले देवता कहते हैं। इस युद्ध में कल्ला जी वीरगति को प्राप्त हो गये थे।
कल्ला जी की 4 खम्भों की छतरी चित्तौड़ दुर्ग में भैरवपोल के पास बनी है।
कल्ला जी की सर्वाधिक मान्यता बांसवाड़ा जिले में है। यहाँ इनके थान पर भूत-पिशाच ग्रस्त लोगों व रोगी पशुओं का ईलाज होता है।
मल्लीनाथ जी
जन्म
1358 ई.
जन्मस्थान
महेवा (बाड़मेर)
पिता
राव सलखा
माता
ज्याणीदे
पत्नी
रानी रूपलदे
पुत्र
जगमाल
चाचा
कान्हड़दे
दादा
राव तीड़ा
मल्लीनाथ जी का जन्म 1358 ई. में महेवा (बाड़मेर) नामक स्थान पर हुआ।
इनके पिता की मृत्यु के बाद ये अपने चाचा कान्हड़दे के यहाँ महेवा में शासन प्रबन्ध देखने लगे। चाचा कान्हड़दे की मृत्यु के बाद 1374 ई. महेवा के शासक बन गये। यह मारवाड़ के शासक रहे।
यह फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे।
इन्होंने अपनी पत्नी रूपादे की प्रेरणा से गुरु उगमसी भाटी से 1389 ई. में योग की दीक्षा ली।
इन्हीें के नाम पर बाड़मेर में एक परगने का नाम ’मालाणी’ रखा गया। इन्होंने अपने भतीजे राव चूण्डा की मंडोर व नागौर जीतने में सहायता की।
मल्लीनाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर जालौर जिले की आहोर तहसील के डोडियाली गाँव के पास स्थित है।
इनका मुख्य मंदिर तिलवाड़ा (बालोतरा) में है। यहाँ चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक मेला लगता है। इसी समय यहाँ मल्लीनाथ पशु मेला भी लगता है, जो राजस्थान का सबसे प्राचीन पशु मेला है।
इनकी पत्नी रूपा दे ’बरसात की देवी’ मानी जाती है। इनका मंदिर मालाजाल गाँव (तिलवाड़ा, बालोतरा) में है।
इन्होंने 1399 ई. में मारवाड़ के सभी संतों को एकत्रित किया और एक विशाल हरिकीर्तन का आयोजन करवाकर ’कुंडा पंथ’ की स्थापना की। उसी वर्ष चैत्र शुक्ल द्वितीया को इनका देहान्त हो गया।
मल्लीनाथ जी की समाधि तिलवाड़ा (बालोतरा) में है।
तल्लीनाथ जी
उपनाम
प्रकृति प्रेमी लोक देवता, जालौर के लोकदेवता
वास्तविक नाम
गांगदेव राठौड़
जन्म
1544 ई.
जन्म स्थान
शेरगढ़ (जोधपुर ग्रामीण)
पिता
वीरमदेव
गुरु
जालन्धर नाथ
तल्लीनाथ जी का जन्म 1544 ई. को शेरगढ़ (जोधपुर ग्रामीण) में हुआ था।
इन्होंने शेरगढ़ ठिकाने (जोधपुर ग्रामीण) पर शासन किया था। यह रणकौशल में निुपण थे।
इनके गुरु जालन्धर नाथ ने इन्हें ’तल्लीनाथ’ नाम दिया था।
इनका मुख्य मंदिर पंचमुखी पहाड़, पांचोटा गाँव (जालौर) में है। पांचोटा गाँव के निकट पंचमुखी पहाड़ी के बीच इनकी घोड़े पर सवार मूर्ति स्थापित है।
तल्लीनाथ जी ओरण के देवता के रूप में प्रसिद्ध है। पंचमुखी पहाड़ के आस-पास के क्षेत्र में स्थानीय लोग इन्हें ’ओरण’ मानते है। यहाँ किसी के द्वारा भी पेड़-पौधों को नहीं काटा जाता।
जहरीला जानवर काटने पर इनकी पूजा की जाती है।
डूँगरजी-जवाहरजी
डूँगरजी-जवाहरजी लोकदेवता सीकर के प्रसिद्ध लोकदेवता व डाकू के रूप में प्रसिद्ध लोकदेवता माने जाते है।
यह सीकर जिले के बाठोठ-पाटोदा गाँव के कछवाह राजपूत थे। दोनों आपस में काका भतीजा थे। इनको ’राजस्थान का राॅबिनहुड’ कहा जाता है।
यह शेखावाटी क्षेत्र के प्रमुख लोकदेवता थे।
डूँगर जी अमीरों से धन लूटकर गरीबों में बाँट दिया करते थे। इन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर रामगढ़ (सीकर) के सेठों के काफिलों को लूटकर काफी धन गरीबों में बांट दिया था। इन्होंने अनेक बार अंग्रेज छावनियों को लूटा।
डूंगरजी के साले भैरूसिंह ने इनको अपने यहाँ भोजन पर बुलवा कर अत्यधिक शराब पिलाकर धोखे से पकड़वा दिया। अंग्रेजों ने डूँगरजी को गिरफ्तार कर आगरा दुर्ग में कैद कर दिया, तब जवाहरजी ने 1838 ई. में लोटिया जाट व करणा मीणा की सहायता से उन्हें छुड़वाया था।
डूँगरजी ने जेल से छूटते ही अंग्रेजों की नसीराबाद छावनी को लूट लिया।
अंग्रेजों की सेना ने जोधपुर व बीकानेर की सेना के साथ मिलकर 31 दिसम्बर, 1846 ई. को बीकानेर के घड़सीसर में डूँगरजी व जवाहर जी को घेर लिया था।
जवाहर जी वहाँ से भागकर बीकानेर के महाराजा रतनसिंह के पास खैरखट्टा नामक स्थान पर शरण लेते है। डूँगरजी जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह की शरण में रहे थे।
भूरिया बाबा
भूरिया बाबा का अन्य नाम गौतमेश्वर भी है।
भूरिया बाबा मीणाओं के आराध्य देवता है।
इनका मुख्य मंदिर पौसलिया गाँव (सिरोही) में है। यहीं पर 13 अप्रैल से 15 अप्रैल के मध्य मेला भरता है, जो अरावली पर्वत शृंखला में गोड़वाड़ क्षेत्र के मीणाओं का सबसे बड़ा मेला है।
प्राचीन परम्पराओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस मेले में वर्दीधारी पुलिसकर्मियों का प्रवेश वर्जित होता है। मेले की सम्पूर्ण व्यवस्था समाज के पंच ही करते है।
मीणा जाति के लोग इनकी झूठी कसम नहीं खाते।
वीर बिग्गा जी
उपनाम
जाखड़ समाज के कुलदेवता
जन्म
1301 ई.
जन्मस्थान
रीड़ी गाँव (बीकानेर)
पिता
रावमोहन
माता
सुल्तानी
दादा
राव लाखोजी
बहिन
हरिया बाई
वीर बिग्गा जी का जन्म 1301 ई. में रीड़ी गाँव (बीकानेर) को हुआ था।
इन्होंने मुस्लिम लुटेरों से गायो को बचाने हेतु अपने प्राण त्याग दिये थे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन गौ सेवा में व्यतीत किया था।
इनका मेला प्रति वर्ष 14 अक्टूबर को भरता है।
देवबाबा
देवबाबा को गुर्जरों व ग्वालों के पालनहार व कष्ट निवारक देवता माना जाता है।
इनका मुख्य मंदिर नगला जहाज (भरतपुर) में स्थित है। इनका पूजा स्थल नीम के पेड़ के नीचे होता है। नगला जहाज में भाद्रपद शुक्ल पंचमी व चैत्र शुक्ल पंचमी को मेला लगता है।
वर्ष में दो बार लगने वाले इन मेलों पर ग्वालों/चरवाहों को भोजन कराने की परम्परा है।
देवबाबा की एक हाथ में झाड़ व दूसरे हाथ में लाठी लिए भैंसे पर सवार प्रतिमा होती है।
ये पशु चिकित्सक थे। पशु चिकित्सा शास्त्र में निपुण होने के कारण चरवाहे व ग्वालें इन्हें अपना आराध्य मानते है।
वीर फत्ता जी
वीर फत्ता जी का जन्म सांथू गाँव (जालौर) में हुआ था।
इनका मुख्य मंदिर सांथू गाँव (जालौर) में है। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल नवमी को मेला भरता है। इनका थान बबूल वृ़क्ष के नीचे होता है।
इनको शस्त्र विद्या का ज्ञान था।
फत्ता जी लुटेरों से गाँव की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे।
वीर पनराज जी
वीर पनराज जी का जन्म नगा गाँव (जैसलमेर) के भाटी राजपूत परिवार में हुआ था।
इनका मेला पनराजसर में भाद्रपद शुक्ल दशमी व माघ शुक्ल दशमी को भरता है। पनराजसर में इनका मंदिर बिना छत का है केवल चबूतरा बना है।
इन्होंने काठोड़ी गाँव (जैसलमेर) के ब्राह्मण परिवार की गायों को मुस्लिम लुटेरों से बचाने हेतु अपने प्राण त्याग दिये थे। इन्होंने गर्दन कटने के बाद भी युद्ध किया था।
हरिराम जी
हरिराम जी का जन्म 1602 ई. को हुआ था।
इनका मुख्य मंदिर झोरड़ा गाँव (नागौर) में बना है। इनके मंदिर में मूर्ति नहीं होती है, बल्कि साँप की बाम्बी व बाबा के चरण चिह्न प्रतीक के रूप में पूजे जाते है।
इनका मेला चैत्र शुक्ल चतुर्थी व भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को लगता है।
इनके थान पर साँप काटे व्यक्ति का मंत्र से ईलाज होता है।
भौमिया जी
भौमिया जी को ’भूमि के रक्षक देवता’ माना जाता है।
राजस्थान में किसान इनकी पूजा खेत-खलिहान में करते है।
जयपुर में नाहरसिंह भोमिया व दौसा दुर्ग के समीप सूरजमल जी भौमिया का मंदिर प्रसिद्ध है।
केसरिया कुँवर जी
केसरिया कुँवर जी सर्पदंश के ईलाज कत्र्ता थे।
केसरिया कुँवर जी का मंदिर ब्रह्मासर (हनुमानगढ़) व ददरेवा (चुरू) में बना है।
इनका थान खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है और थान पर सफेद रंग की ध्वजा होती है।
इनके थान पर भोपा सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति का ईलाज मुँह से जहर चूस कर करते हैं।
मामादेव
मामादेव लोकदेवता को ’बरसात के देवता’ भी कहा जाता है।
इनके मंदिर नहीं होते है और न ह कोई मूर्ति होती है। बल्कि मूर्ति के स्थान पर गाँव के बाहर काष्ठ के तोरण की पूजा होती है। इनको प्रसन्न करने हेतु भैंसे की बलि दी जाती है।
आलम जी
आलम जी मालाणी क्षेत्र (बाड़मेर) के लोकदेवता है।
बाड़मेर जिले के गुढ़ामालाणी प्रदेश में राड़ धरा क्षेत्र में ढांगी नामक रेतीले टीले पर इनका मंदिर बना है, यह घोड़ों का तीर्थस्थल है। यहीं पर ’आलम पशु मेला’ भी लगता है। इनका मेला भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को भरता है।
इलोजी
इलोजी मारवाड़ में ’छेड़छाड़ के देवता’ व ’कुँवारों के देवता’ के उपनाम से जाने जाते है।
यह राजा हिरण्यकश्यप के बहनोई व होलिका के होने वाले पति थे। यह स्वयं कुँवरे रहे थे, लेकिन विवाह का वरदानदेते थे। यह अविवाहितों को दुल्हन व नवदम्पतियों को सुखद जीवन एवं बाँझ स्त्रियों को संतान देने में सक्षम लोकदेवता है।
होली के दूसरे दिन बाड़मेर में इलो जी की बारात निकाली जाती है।
निष्कर्ष :
इस आर्टिकल में हमनें राजस्थान के लोकदेवता(Rajasthan Ke Lokdevta) की विस्तार से जानकारी दी है , हमें उम्मीद है कि आप इसे पढकर जरुर खुश हुए होंगे …..धन्यवाद