राजस्थान के लोकनाट्य – Rajasthan ke Loknatya | पुरे टॉपिक का निचोड़

आज के आर्टिकल में हम राजस्थान के लोकनाट्य(Rajasthan ke Loknatya) ख्याल नाट्य, कुचामनी ख्याल, जयपुरी ख्याल, हेला ख्याल, शेखावाटी ख्याल, अली बक्शी ख्याल, कन्हैया ख्याल, तुर्रा कलंगी ख्याल, किशनगढ़ी ख्याल, ढप्पाली ख्याल, तमाशा, रम्मत, गवरी नाट्य, स्वांग, भवाई नाट्य टॉपिक पर चर्चा करेंगे। इस टॉपिक से जुड़े महत्त्वपूर्ण फैक्ट की जानकारी आपको दी जाएगी।

राजस्थान के लोकनाट्य

राजस्थान में लोकनाट्य की परम्परा प्राचीन काल से है। लोकनाट्य में विभिन्न कथा, संवाद व गीत लोकमानस में प्रचलित कथाओं व उनकी रूचि के अनुरूप होते है। इन लोकनाट्यों के प्रदर्शनों से जनमानस को आनंद प्रदान किया जाता है।

राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य

ख्याल नाट्य कुचामनी ख्याल
जयपुरी ख्याल हेला ख्याल
शेखावाटी ख्याल अली बक्शी ख्याल
कन्हैया ख्याल तुर्रा कलंगी ख्याल
किशनगढ़ी ख्याल ढप्पाली ख्याल
तमाशा रम्मत
गवरी नाट्य स्वांग
भवाई नाट्य चारबेंत

ख्याल नाट्य

  • ख्याल का शाब्दिक अर्थ – खेल
  • ख्याल लोकनाट्य का प्रारम्भ 18 वीं सदी से हुआ है।
  • इसमें किसी धार्मिक, सामाजिक, पौराणिक आख्यानों व ऐतिहासिक वीराख्यानों का पद्यबद्ध रचनाओं के रूप में अलग-अलग पात्रों द्वारा गा-गाकर लोक मनोरंजन हेतु लोक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मन में उत्पन्न विचारों को रंगमंच पर प्रदर्शित करना ’ख्याल’ कहलाता है।
  • ख्याल एक संगीत प्रधान लोकनाट्य है।
  • यह लोकनाट्य की सबसे लोकप्रिय विधा है।
  • ख्याल में दृश्य, पोशाक एवं पात्र के प्रतिनिधित्व के रूप में प्रतीकात्मकता का अधिक प्रयोग होता है।
  • ख्याल की प्रतियोगिता को ’दंगल’ और ख्याल का सूत्रधार ’हलकारा’ कहलाता है।
  • ख्याल में भाग लेने वाले कलाकार ’खिलाड़ी’ कहलाते है।
  • इसमें दल को ’अखाड़ा’ और दल के मुखिया को ’उस्ताद’ कहा जाता है।
  • इसमें नगाड़ा तथा हारमोनियम प्रमुख वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।

राजस्थान के अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रकार के ख्याल प्रचलित है। राजस्थान के प्रमुख ख्याल निम्न है –

कुचामनी ख्याल –

  • डीडवाना-कुचामन जिले के आसपास कुचामनी ख्याल प्रसिद्ध है।
  • यह हास्य एवं विनोद प्रधान ख्याल है।
  • कुचामनी ख्याल के प्रवर्तक लच्छीराम थे।
  • वर्तमान में कुचामनी ख्याल के प्रसिद्ध कलाकार उगमराज तथा वंशीलाल चुई है।
  • यह ओपेरा शैली पर आधारित ख्याल है।
  • इस ख्याल की भाषा सरल होती है तथा इसके विषय सामाजिक व्यंग्य पर आधारित होते है।
  • इस ख्याल में लोकगीत काफी होते है।
  • इसका प्रदर्शन खुले मंच पर किया जाता है।
  • स्त्री चरित्रों का अभिनय पुरुष कलाकारों द्वारा किया जाता है।
  • इसमें ढोल, शहनाई, ढोलक और सांरगी वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
  • लच्छीराम ने कुल 25 ख्याल लिखी है। इनके द्वारा रचित चाँद नीलगिरी, राव रिड़मल तथा मीरा मंगल प्रसिद्ध ख्यालें है।

जयपुरी ख्याल –

  • जयपुर जिले के आसपास जयपुरी ख्याल प्रसिद्ध है।
  • इस ख्याल के सभी पात्रों की भूमिका स्त्रियाँ निभाती है।
  • जयपुर के गुणीजन खाने के कलाकार इस ख्याल में हिस्सा लेते है।
  • इस लोक नाट्य में जोगी-जोगन, कान-गुजरी, मियां-बीबी, रसीली तंबोलन आदि होते है।
  • इस ख्याल में नये प्रयोगों की सम्भावना रहती है। इसमें नृत्य, गान, संगीत, कविता व अभिनय का सुन्दर समावेश मिलता है।
  • ’ख्याल भारमली’ नामक ख्याल की रचना हमीदुल्ला ने की है।

हेला ख्याल –

  • सवाई माधोपुर और लालसोट (दौसा) के आसपास हेला ख्याल प्रसिद्ध है।
  • हेला ख्याल के प्रवर्तक हेलाशायर है।
  • राजस्थान में हेला से आशय लम्बी टेर में आवाज देना होता है।
  • प्रारम्भ में इसके कलाकार हेला जाति के होते थे, अतः इसको ’हेला ख्याल’ के नाम से जाना गया।
  • ख्याल के प्रारम्भ होने से पूर्व बम वाद्ययंत्र का प्रयोग होता है। हेला ख्याल का प्रमुख वाद्ययंत्र ’नौबत’ होता है।
  • इसे संगीत दंगल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी कारण इसमें शायर/आशु कवियों का मुख्य योगदान रहता है।

शेखावाटी ख्याल –

  • शेखावाटी ख्याल के प्रवर्तक नानूराम चिड़ावा थे, इसलिए इसे ’चिड़ावा ख्याल’ भी कहते है। दुलिया राणा ने इसे लोकप्रियता दी थी।
  • नानूराम द्वारा रचित प्रमुख ख्याल हरिचन्द, हीर राँझा, जयदेव कलाली, भृर्तहरि, आल्हादेव एवं ढोला मरवन आदि है।
  • शेखावाटी ख्याल चिड़ावा, चुरू व शेखावाटी क्षेत्र की लोकप्रिय है।
  • इसमें शहनाई, ढोलक, सारंगी, हारमोनियम, नक्कारा व बाँसुरी वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

अली बक्शी ख्याल –

  • अली बक्शी ख्याल अलवर के मुण्डावर की प्रसिद्ध है।
  • इसके प्रवर्तक अली बक्श है। अलीबक्श को ’अलवर का रसखान’ कहते है।

कन्हैया ख्याल –

  • कन्हैया ख्याल क प्रचलन सवाई माधोपुर, भरतपुर, धौलपुर, दौसा, गंगापुर सिटी, डीग व करौली में है।
  • इस ख्याल में ’कहन’ कही जाती है इसी के आधार पर इसे कन्हैया दंगल के नाम से जाना जाता है। इसमें मुख्य पात्र को ’मेड़िया’ कहा जाता है।
  • यह गीत गोल घेरे में खड़े होकर गाया जाता है।
  • पंक्ति की समाप्ति पर लम्बी उल्टी मींड इसकी विशेषता होती है।
  • यह ख्याल दिन में आयोजित होता है इसमें रामायण-महाभारत के कथानक पर आधारित ख्यालों का मंचन होता है।
  • कन्हैया ख्याल में नौबत, घेरा, मंजीरा व ढोलक वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है। जब ’कहीन’ कही जाती है तब नौबत व घेरा बंद रहते है।
  • इसकी समाप्ति पर जब सारा दल एक साथ गाता है तब ये वाद्य बड़े जोरों से बजाए जाते है।

तुर्रा कलंगी ख्याल –

  • तुर्रा कलंगी ख्याल चित्तौड़गढ़ जिले की प्रसिद्ध है।
  • इस लोकनाट्य के रचनाकार शाहअली व तुकनगीर है।
  • मेवाड़ के शाहअली व तुकनगीर नामक संत पीरों ने 400 वर्ष पूर्व इसकी रचना की थी। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर चंदेरी के शासक ने तुकनगीर को अपने मुकुट का तुर्रा व शाह अली को कलंगी भेंट की थी।
  • इस ख्याल का प्रमुख वाद्ययंत्र चंग होता है।
  • इस नाटक को हिन्दू तथा मुुस्लिम कलाकार संयुक्त रूप से प्रस्तुुत करते है।
  • यह एकमात्र ऐसा लोकनाट्य है जो मंच पर प्रस्तुत होता है। इसलिए इस ख्याल को ’माच का खेल’ कहा जाता है।
  • शाहअली कलंगी के पक्षधर व तुकनगीर तुर्रा के पक्षधर थे। कलंगी को पार्वती का प्रतीक व तुर्रा को महादेव शिव का प्रतीक माना जाता है।
  • राजस्थान में तुर्रा-कलंगी लोक नाट्यों का प्रचलन चित्तौड़गढ़, घोसुण्डा, निम्बाहेड़ा आदि क्षेत्रों में सहेडूसिंह (तुर्रा) तथा हमीदबेग (कलंगी) के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ।
  • तुर्रा अखाड़े का झण्डा भगवे रंग का तथा कलंगी अखाड़े का हरा रंग होता है।
  • तुर्रा कलंगी ख्यालों के दंगल में दोनों पक्ष आमने-सामने बैठकर प्रतिस्पर्धामूलक संवाद करते हैं जिसे बैठक का गाना कहते है।
  • इसमें नायक-नायिका के लिए अलग-अलग अट्टालिकानुमा ऊँचा आकर्षक व सुसज्जित मंच बनाया जाता है, जहाँ से सीढ़ी के सहारे वे अपने सवाल-जवाब गाते हुए नीचे उतरते हैं।
  • इसके संवाद ’बोल’ कहलाते है।
  • तुर्रा-कलंगी खेल रात-भर चलते है।
  • इसमें स्त्री पात्रों की भूमिका भी पुरूष ही निभाते है।

किशनगढ़ी ख्याल –

  • किशनगढ़ी ख्याल अजमेर में लोकप्रिय है।
  • इसके प्रमुख कलाकार बंशीधर शर्मा है।

ढप्पाली ख्याल –

  • ढप्पाली ख्याल अलवर में लोकप्रिय है।
  • इसके प्रमुख कलाकार श्री मोतीलाल है। इन्होंने गोपीचन्द व अमरसिंह राठौड़ पर ख्याल लिखे।
  • अलवर, भरतपुर, लक्ष्मणगढ़ का क्षेत्र ढप्पाली ख्याल के लिए प्रसिद्ध है।
  • ढप्पाली एक विशिष्ट गायकी है, इसमें संगीत प्रेमियों की प्रतिस्पर्धा होती है।
  • इसमें ढोल, नगाड़ा व शहनाई वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

तमाशा

  • तमाशा जयपुर का प्रसिद्ध लोक नाट्य है।
  • यह जयपुर की परम्परागत लोक नाट्य शैली कही जाती है।
  • यह संगीत प्रधान लोक नाट्य है।
  • यह महाराष्ट्र की लोक नाट्य शैली तमाशा से प्रभावित है।
  • इसका प्रारम्भ महाराजा प्रतापसिंह के शासनकाल में हुआ था।
  • रामसिंह द्वितीय ने तमाशा के कलाकारों को आश्रय प्रदान किया था।
  • इसके प्रमुख प्रवर्तक बंशीधर भट्ट थे।
  • तमाशा जयपुरी ख्याल और धु्रपद गायकी का मिश्रित रूप है।
  • वासुदेव भट्ट ने गोपीचन्द तथा हीर रांझा तमाशा प्रारम्भ किया।
  • तमाशा के संवाद काव्यमय होते है तथा इसमें संगीत, नृत्य और गायन तीनों की प्रधानता है।
  • तमाशा खुले मंच पर होता है, जिसे ’अखाड़ा’ कहते है।
  • इसके प्रमुख वाद्ययंत्र सारंगी, नगाड़ा, तबला व हारमोनियम आदि है।
  • तमाशे में स्त्री पात्रों की भूमिका स्त्रियों द्वारा ही अभिनीत की जाती थी। बंशीधर भट्ट के समय जयपुर की मशहुर नर्तकी गौहरजान तमाशे में स्त्री पात्र का अभिनय करती थी।
  • जयपुर क्षेत्र में अलग-अलग अवसर पर अलग-अलग प्रकार के तमाशे किये जाते है –
  • जयपुर क्षेत्र में शीतलाष्टमी को ’जुठ्ठनमियां’, चैत्र अमावस्या को ’गोपीचन्द’, होली के दिन ’जोगीजोगन’ और होली के दूसरे दिन ’हीर-रांझा’ तमाशे खेले जाते है।
  • वर्तमान में तमाशा के उस्ताद गोपीकृष्ण भट्ट, फूल जी भट्ट व वासुदेव भट्ट है।

रम्मत

  • रम्मत का उद्भव जैसलमेर से हुआ था।
  • जैसलमेर से ही यह कला बीकानेर, फलौदी, पोकरण व जोधपुर पहुँची है।
  • बीकानेर की रम्मत सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रसिद्ध है।
  • बीकानेर में भी आचार्यों का चौक रम्मतों के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
  • यह एक खेल होता है जो ऐतिहासिक एवं पौराणिक काव्य रचनाओं के आधार पर अभिनीत किया जाता है।
  • रम्मत को खेलने वाले ’खेलार’ कहलाते है।
  • बीकानेर में रम्मतों का मंचन पाटों पर होता है। अतः ’पाटा संस्कृति’ बीकानेर की देन है।
  • रम्मतों के अधिकांश कलाकार पुष्करणा ब्राह्मण होते हैं, यह रात को 11 बजे से प्रारम्भ होकर सुबह तक चलती है।
  • इसमें श्री मनीराम व्यास, फागू महाराज, सुआ महाराज, तुलसीराम आदि कलाकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
  • रम्मत एक संगीत नाट्य होती है।
  • रम्मतें होली पर फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से चतुर्दशी तक आयोजित की जाती है।
  • रम्मतों में आचार्यों के चैक की ’अमरसिंह राठौड़ री रम्मत’, बारह गुवाड़ की ’हेड़ाऊमेरी की रम्मत’ रावलों की रम्मत आदि प्रसिद्ध रम्मतें है।
  • जैसलमेर में तेजकवि ने रम्मतों का अखाड़ा प्रारम्भ किया था।
  • तेजकवि ने स्वतंत्रता बावनी, मूमल, जोगी भर्तृहरि, छेले तम्बोलन आदि रम्मतों की रचना की।
  • रम्मत में मुख्य वाद्ययंत्र नगाड़ा व ढोलक होते है।
  • रम्मतों का मंचन मौहल्लों के मध्य बने चैक में होता है, बीकानेर में यह होली के अवसर पर लकड़ी के बने पाटों पर होता है, मुख्य मंच के चारों ओर दर्शक बैठते है।
  • रम्मत में मुख्य कलाकार ’टेरिये’ होते है, टेरिये के बोल के साथ पात्र नाचते हुए अपनी कला प्रदर्शित करते है।
  • इसमें नगाड़ा, ढोलक, तबला, झांझ, चिमटा, तंदुरा व हारमोनियम वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।
  • पूरन भक्त की, मोरध्वज की, डूँगरजी-जवाहरजी, राजा हरिश्चन्द्र और गोपीचन्द भरथरी की रम्मत प्रसिद्ध है।

गवरी नाट्य

  • राजस्थान का सबसे प्राचीन लोकनाट्य है।
  • इसे ’लोकनाट्य नाट्यों का मेरू नाट्य’ कहा जाता है।
  • गवरी नाट्य मेवाड़ के भीलों द्वारा किया जाता है।
  • रक्षाबन्धन के अगले दिन से 40 दिन तक चलता है।
  • इसमें स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।
  • पूरे भारत में दिन में प्रदर्शित होने वाला एकमात्र लोकनाट्य है।
  • यह भीलों का धार्मिक लोकनाट्य है जो शिव भस्मासुर की कथा पर आधारित है।
  • इसके मुख्य पात्र शिव होते है और शिव को ’राई-बुड़िया’ कहा जाता है। शिव की पत्नी गौरी के नाम के कारण गवरी’ नाम पड़ा। पार्वती के पात्र को इस नाट्य में राई/रायां के नाम से पुकारा जाता है। इसलिए इसे ’राई नाट्य’ भी कहा जाता है। अन्य पात्रों को ’खेल्ये/खेला’ कहा जाता है।
  • इसमें झामट्या नाम का पात्र लोकभाषा में कविता बोलता है और खटकड्या उसको दोहराता है और बीच-बीच में जोकर का काम भी करता है।
  • इस नाट्य का सूत्रधार कुटकुड़िया/खटकड्या होता है।
  • गवरी के नृृतक मुख्य पात्र पुरिया के चारों ओर थाली और मांदल की ताल पर नृत्य करते है।
  • गवरी के विभिन्न प्रसंगों को मूल कथानक से जोड़ने के लिए मध्य में किये जाने वाले नृत्य को ’गवरी की घाई’ कहते है।
  • यह नृत्य काल्पनिक परम्पराओं पर आधारित होता है।
  • गवरी पात्र के खेलों में गणपति, ममरिया मेआवड़, मीणा, कान-गुजरी, जोगी, लाखावनजारा, नटड़ी एवं माता तथा शेर के खेल होते है।
  • भीलों के अलावा इस लोक नाट्य को कोई नहीं खेल सकता।
  • गवरी की समाप्ति के दो दिन पहले ज्वार बोये जाते है।

स्वांग

  • यह भी लोकनाट्य का एक रूप है, जिसमें एक ही चरित्र होता है।
  • किसी विशेष ऐतिहासिक, पौराणिक, लोक प्रसिद्ध विख्यात चरित्र या देवी-देवता की नकल में मेकअप करना व वेशभूषा पहन कर उसका अभिनय करना ’स्वांग’ कहलाता है।
  • स्वांग कला भरतपुर क्षेत्र की पुरानी मनोरंजक विद्या है।
  • स्वांग रचने वाले व्यक्ति को बहरूपिया कहा जाता है। रावल, भांड़, व मानमति जाति द्वारा स्वांग प्रस्तुत किया जाता है।
  • मारवाड़ क्षेत्र में रावल जाति के लोगों द्वारा इसका प्रदर्शन किया जाता है।
  • इस लोकनाट्य का प्रारम्भ 13-14 की शताब्दी से माना जाता है।
  • भीलवाड़ा के जानकी लाल भांड ने इस कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाई है। जानकीलाल भाण्ड को ’मंकी मैन’ के नाम से जाना जाता है।
  • चैत्र कृष्णा त्रयोदशी को भीलवाड़ा जिले के मांडल में ’नाहरों का स्वांग’ बहुत प्रसिद्ध है।
  • इसके प्रसिद्ध कलाकार जानकी लाल भाण्ड एवं धनरूप भांड थे। धनरूप भांड को जोधपुर के महाराजा भीमसिंह ने ’भांड’ का खिताब दिया।

चारबैंत

  • चारबैंत टोंक का प्रसिद्ध लोकनाट्य है।
  • यह मुख्य रूप से अफगानिस्तान का लोकनाट्य है। पहले यह ’पश्तो भाषा’ में प्रस्तुत किया जाता था।
  • नवाब फैज्जुल्ला खाँ (टोंक) के समय करीम खां ने इसे स्थानीय भाषा में प्रस्तुत किया था।
  • चारबैत का प्रवर्तक अब्दुल करीम खाँ को माना जाता है।
  • इसमें डफ वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।
  • चारबैंत गायक परम्परागत शैली में ढप बजाकर कव्वालों की भांति भावावेश में घुटनों के बल खड़े होकर गीत गाते हैं।
  • चारबैत चार प्रकार का होता है – भक्ति, शृंगार, रकीबखानी व गम्माज।

भवाई नाट्य

  • भवाई नाट्य गुजरात का लोकनाट्य है।
  • राजस्थान के गुजरात के सीमावर्ती इलाकों में भी यह नाट्य बहुत लोकप्रिय है।
  • यह व्यावसायिक श्रेणी का लोकनाट्य माना जाता है।
  • यह भवाई जाति के लोगों द्वारा भी प्रस्तुत किया जाता है।
  • इसमें पात्र रंगमंच पर अपना परिचय नहीं देते है।
  • यह नृत्य नाटिका सगोजी-सगीजी के रूप में भोपा-भोपियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
  • इसमें कलाकार नृत्य के साथ-साथ अनेक चमत्कारिक अदायें दिखाता है।
  • शान्ता गाँधी के नाटक ’जसमल ओडण’ पर भवाई लोकनाट्य किया जाता है, जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है।
  • इसके मुख्य कलाकार बाघ जी जाट (केकड़ी जिला) है।
  • यह सामाजिक समस्याओं पर मुख्यतः केन्द्रित है।

गंधर्व नाट्य

  • यह मारवाड़ क्षेत्र का लोक नाट्य है।
  • मारवाड़ में गधर्व जाति पेशेवर नृत्य एवं गायन करती है, यह जैन धर्म पर आधारित लोक नाट्य है।
  • इनके द्वारा संगीत नाट्य अजना सुन्दरी और मैना सुन्दरी का प्रदर्शन किया जाता है।
  • गंधर्व नाट्य कलाकार सभ्य शिक्षित और शिष्ट होते है तथा अपने जीवन के मिशन के रूप में इन्हें करते है।

रासलीला

  • यह भगवान श्रीकृष्ण की बाल्यकाल और किशोरावस्था की लीलाओं पर आधारित लोकनाट्य है। इसकी उत्पत्ति वल्लभाचार्य द्वारा की गई थी।
  • राजस्थान में शिवलाल कुमावत ने इसे विशेष स्वरूप प्रदान किया।
  • राजस्थान में रासलीला का प्रमुख केन्द्र फूलेरा (जयपुर ग्रामीण), कामां (डीग) है। इसके अतिरिक्त जयपुर, आसलपुर, हरदोणा, गुण्डा में भी रासलीलाओं का मंचन होता है।
  • डीग में रसिया दंगल खेला जाता है।
  • रासलीला में सभी नौरंगों का समावेश पाया जाता है।
  • डीग व भरतपुर जिले में रासलीलाओं का आयोजनज होता रहा है।
  • इस क्षेत्र में हरगोविन्द स्वामी और रामसुख स्वामी के रासलीला मंडल अत्यधिक प्रसिद्ध है। ये दोनों व्यक्ति ब्रज भाषा में रासलीलाओं का प्रदर्शन करते हैं।
  • आबू क्षेत्र की गरासिया जनजाति द्वारा ’गौर लीला’ की जाती है।
  • सनकादिक लीला घोसुण्डा (चित्तौड़) व बस्सी (चित्तौड़) में की जाती है।

रामलीला

  • यह भारत का सबसे प्राचीन नाट्य है। भगवान श्रीराम के जीवन प्रसंगों पर आधारित होती है। इसका प्रारम्भ ’गोस्वामी तुलसीदास’ ने काशी में किया था।
  • बिसाऊ (झुंझुंनूँ) की मूक रामलीला प्रसिद्ध है।
  • अटरू (बारां) की रामलीला में शिव धनुष श्रीराम की जगह जनता द्वारा तोड़ा जाता है।
  • जुरहरा, वेंकटेश (भरतपुर), पाटुंदा (कोटा) की रामलीला भी प्रसिद्ध है। मांगरोल (बारां) की रामलीला ढ़ाई कड़ी की है।

नौटंकी नाट्य

  • राजस्थान में नौटंकी भरतपुुर व डीग की प्रसिद्ध है।
  • सम्पूर्ण भरतपुर में हाथरस शैली की नौटंकी प्रसिद्ध है।
  • यह नौटंकी उत्तरप्रदेश की हाथरसी नौटंकी से प्रभावित है।
  • इसके प्रमुख कलाकार गिरिराज प्रसाद है।
  • नौटंकी में नौ प्रकार के वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।
  • नौटंकी की संगीत कला बृज क्षेत्र की प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं की सच्ची कहानियों पर आधारित होने से सैंकड़ों वर्षों से यहाँ के जनमानस में रची बसी हुई है।
  • इसमें नगाड़ा, ढोलक, सारंगी, चिकारा व ढपली वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।
  • नौटंकी लोकनाट्य का प्रदर्शन अक्सर विवाह, मेले, त्यौहार, मांगलिक अवसर, नुमाइशें तथा सामाजिक उत्सवों पर किया जाता है।
  • यह खेल भरतपुर, डीग, धौलपुर, करौली, खैरथल-तिजारा, बहरोड़-कोटपुतली, अलवर, सवाई माधोपुर और गंगापुर सिटी आदि स्थानों पर अधिक लोकप्रिय है।
  • भरतपुर, डीग और धौलपुर में नत्थाराम की मण्डली द्वारा नौटंकी का खेल दिखाया जाता है।
  • पूर्वी राजस्थान में विवाह, सामाजिक समारोह, मेलों तथा लोकोत्सवों के मौकों पर इनका आयोजन होता है।
  • नौटंकी के प्रमुख नाटक – किस्सा रूप बसन्त, सत्यवान सावित्री, नकाबपोश, हरिश्चन्द्र-तारामती, राजा भरथरी की नौटंकी, आल्हा-उदल, अमरसिंह राठौड़ आदि प्रसिद्ध है।
  • रामदयाल शर्मा भरतपुर के प्रसिद्ध नौटंकी कलाकार है। इन्हें 2021 में पद्मश्री सम्मान मिला था। ये ’ब्रज कोकिला’’ब्रज पपीहा’ के नाम से प्रसिद्ध है।

दंगली नाट्य

  • दंगली नाट्य सम-सामयिक घटना के साथ प्रारम्भ होता है।
  • करौली के कन्हैया के दंगल तथा धौलपुर के भेंट के दंगल प्रसिद्ध है।

कठपुतली नाट्य

  • राजस्थान में कठपुतली नाट्य विशेष रूप से उदयपुर क्षेत्र में प्रचलित है।
  • राजस्थान में कठपुुतलियाँ भाटों और नटों द्वारा नचाई जाती है।
  • इसमें कठपुतली नचानेवाला नट अपने मुँह में एक विशेष प्रकार की सीटी रखता है।
  • जिससे कठपुतलियों की बोली निःसृत होती है।
  • उदयपुर के लोककला मण्डल का कठपुतली खेल प्रसिद्ध है।
  • कठपुतलियाँ आडू की लकड़ी से बनाई जाती है।
  • राजस्थान में प्रमुख रूप से तीन प्रकार की कथाओं पर कठपुतली नचाई जाती है – सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज संयोगिता तथा अमरसिंह की कथाएँ।

निष्कर्ष :

आज के आर्टिकल में हमने राजस्थान के लोकनाट्य(Rajasthan ke Loknatya) टॉपिक पर चर्चा की। आशा करतें है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से आप संतुष्ट होंगें….धन्यवाद ।

Leave a Comment