राजस्थान के संत एवं संप्रदाय

आज के आर्टिकल में हम राजस्थान की कला संस्कृति में राजस्थान के संत एवं संप्रदाय (Rajasthan ke Pramukh sant Sampraday) टॉपिक पर विस्तृत जानकारी देंगे , इस टॉपिक से जुड़े परीक्षा में आने वाले महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन किया गया है।

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राजस्थान के संत एवं संप्रदाय

भक्ति परम्परा के दो मार्ग है – सगुण भक्ति परम्परा व निर्गुण भक्ति परम्परा।

सगुण भक्तिधारा –

  • सगुण भक्ति परम्परा में गुणों/साधनों को महत्त्व दिया जाता है।
  • इसमें मूर्ति पूजा की जाती है।
  • इसमें ईश्वर के साकार रूप की भक्ति होती है।
  • सगुण भक्ति के संत – यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानन्द, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, नाथ सम्प्रदाय, चैतन्य महाप्रभु, मीरां बाई, गवरी बाई, भक्त कवि दुर्लभ जी।

निर्गुण भक्ति धारा –

  • निर्गुण भक्ति परम्परा में गुणों/साधनों को महत्त्व नहीं दिया जाता है।
  • इसमें मूर्ति पूजा नहीं की जाती है।
  • इसमें ईश्वर के निराकार रूप की भक्ति होती है।
  • निर्गुण भक्ति के संत – जसनाथ जी, जाम्भोजी, संत दादूदयाल, रज्जब जी, सुन्दरदास, लालदासजी, कबीर, रैदास, धन्ना जी, संत पीपा, नवलदास जी, लालगिरी जी।

शैव सम्प्रदाय –

  • भगवान शिव के अवतारों की आराधना करने वाले शैव कहलाते है।
  • यह जीवनभर बाल ब्रह्माचारी रहते है। यह लिंग पूजा पर विश्वास करते है।
  • शैव मत के 4 मुख्य उप सम्पदाय – पाशुपत, कालदमन, शैव व कापालिक।
  • राजस्थान में मेवाड़ राजघराना शैव मत को मानने वाला है।
  • पाशुपात सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य लकुलीश है। यह शिव के 28वें अवतार माने जाते है।
  • शैव मत के प्रमाण कालीबंगा और सिंधुघाटी सभ्यता से मिले है।
  • राजस्थान में लकुलीश सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर एकलिंग जी मंदिर (कैलाशपुरी,उदयपुर) में है।
  • सुंधा माता के मंदिर (जालौर) में लकुलीश सम्प्रदाय की शिव मूर्ति है।

वैष्णव सम्प्रदाय –

  • भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा आराधना करने वाले ’वैष्णव’ कहलाते है।
  • राजस्थान में वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम प्रमाण घोसुण्डी शिलालेख में मिलता है।
  • इसके प्रमुख उप-सम्प्रदाय है – वल्लभ सम्प्रदाय, निष्कलंक सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, गौड़ीय सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय।

नाथ सम्प्रदाय –

  • शैव मत का ही एक नया रूप नाथ सम्प्रदाय है।
  • नाथ सम्प्रदाय को योग सम्प्रदाय, अवधूत सम्प्रदाय, सिद्धमत-सिद्धमार्ग सम्प्रदाय के नामों से जाना जाता है।
  • नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ थे। इनका सिद्धान्त ’योगिनीकौल’ था।
  • भगवान शिव को आदियोग/आदिनाथ कहा गया।
  • इस सम्प्रदाय में प्रमुख 9 नाथ हुए हैं। आदिनाथ (शिव), मत्स्येन्द्रनाथ गोरखनाथ, गाहिणीनाथ, चर्पटनाथ, चैरंगीनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, भृर्तहरिनाथ, गोपीचन्द।

राजस्थान में नाथ सम्प्रदाय के दो प्रमुख पंथ –

  1. बैराग पंथ – राताडूंगा (नागौर)
  2. माननाथी – महामंदिर (जोधपुर)
  • राजस्थान में नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र या प्रधानपीठ महामंदिर (जोधपुर) में है। जोधपुर महाराजा मानसिंह ने 1805 ई. में महामन्दिर का निर्माण करवाया था। यह 84 खम्भों का मंदिर है।

निम्बार्क सम्प्रदाय –

  • निम्बार्क सम्प्रदाय को सनकादिक सम्प्रदाय, नारद सम्प्रदाय, हंस सम्प्रदाय, भेदाभेद सम्प्रदाय व द्वैताद्वैत सम्प्रदाय आदि नामों से जाना जाता है।
  • इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य थे।
  • राजस्थान में इसकी प्रधान पीठ सलेमाबाद (अजमेर) में है। सलेमाबाद पीठ (अजमेर) आचार्य परशुराम द्वारा स्थापित है।
  • इस सम्प्रदाय की दूसरी पीठ उदयपुर में है।
  • निम्बार्काचार्य का उपनाम भास्कर है। इनका प्रमुख गुन्थ वेदान्त परिजाद है।
  • इस सम्प्रदाय के प्रथम उपदेष्टा आचार्य हंस माने जाते है।
  • निम्बार्क सम्प्रदाय में राधा और कृष्ण की युगल रूप की सेवा की जाती है जिसमें राधा को कृष्ण की पत्नी माना जाता है। राधाष्टमी के दिन यहाँ भूखों को खिचड़ी बांटी जाती है।
  • जयपुर नरेश जगतसिंह व किशनगढ़ के भगवंतसिंह इनके अनुयायी थे।
  • आचार्य परशुराम का जन्म ठीकरिया (सीकर) में हुआ। यह 36वें निम्बर्काचार्य माने जाते है।

रामानुज सम्प्रदाय –

  • रामानुज सम्प्रदाय को रामानन्दी सम्प्रदाय व रामावत सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।
  • इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य है।
  • राजस्थान में इनकी प्रमुख पीठ गलता जी (जयपुर) में है।
  • राजस्थान में इस सम्प्रदाय का प्रारम्भ कृष्णदास पयहारी द्वारा किया गया था। पयहारी जी ने इस प्रदेश में नाथों का प्रभाव समाप्त कर रामानंदी भक्ति परम्परा प्रवाहित की। गलता में रामानंद के शिष्य कील्हदास जी रहे, जिन्होंने यहाँ के मंदिरों में रामानंदी भक्ति सम्प्रदाय सुदृढ़ किया।
  • रामानुज सम्प्रदाय के लोग भक्ति मार्गी होते है तथा भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते है।
  • जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने भी रामानन्दी सम्प्रदाय को प्रश्रय दिया। इन्होंने कृष्णभट्ट कलानिधि से ’रामरासा ग्रन्थ’ लिखवाया।
  • भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लेकर आने का श्रेय रामानंद जी को है।

वल्लभ सम्प्रदाय –

  • वल्लभ सम्प्रदाय को ’पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है।
  • इसके प्रवर्तक आचार्य वल्लभाचार्य थे।
  • वल्लभाचार्य को श्रीनाथ जी मूर्ति गोवर्धन पर्वत से जतीपुरा गाँव से प्राप्त हुई, जिसको लेकर वे वृंदावन आये और वहाँ श्रीनाथ जी का मंदिर बनवाकर उसमें मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी। इसी कारण वल्लभ सम्प्रदाय के आराध्य देव ’श्रीनाथ जी’ है।
  • वल्लभ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ वृंदावन में श्रीनाथ जी के मंदिर में है। यहाँ पर श्रीकृष्ण की मूर्ति थी।
  • राजस्थान में वल्लभ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ नाथद्वारा (राजसमंद) में है।
  • श्री नाथ जी के मंदिर का निर्माण 1672 ई. में महाराणा राजसिंह द्वारा सीहाड़ गाँव (नाथद्वारा, राजसमंद) में करवाया गया। श्रीनाथ जी की काले रंग की मार्बल की प्रतिमा है व प्रतिमा की ठोड़ी में हीरा लगा है।
  • इनके मंदिर को हवेली, दर्शन को झांकी, ईश्वर की कृपा को पुष्टि, भजन कीर्तन को हवेली संगीत व मूर्ति को स्वरूप कहा जाता है।
  • इस सम्प्रदाय में भगवान कृष्ण के बालरूप की पूजा की जाती है। इस सम्प्रदाय के मंदिरों में आठ बार पूजा होती है।
  • श्रीनाथ जी को ’सात ध्वजा का स्वामी’ कहा जाता है।

विट्ठलनाथ जी के 7 पुत्र थे, जिनके पूजन करने के लिए श्रीनाथ जी की अलग-अलग मूर्तियाँ बनवा कर अलग-अलग मंदिर बनवाये गये, जो निम्न है –

  1. श्रीनाथ जी का मंदिर – नाथद्वारा (राजसमंद)
  2. द्वारिकाधीश मंदिर – कांकरोली (राजसमंद)
  3. मदन मोहन मंदिर – कामां (डीग)
  4. मथुराधीश मंदिर – कोटा
  5. बालकृष्ण जी मंदिर – सूरत (गुजरात)
  6. गोकुल नाथ जी का मंदिर – गोकुल (उत्तरप्रदेश)
  7. गोकुल चन्द्र जी का मंदिर – कामां (डीग)

वल्लभाचार्य –

  • वल्लभाचार्य का जन्म 1478 ई. में चंपारण (कर्नाटक) में हुआ था।
  • इनके पिता लक्ष्मण भट्ट तथा माता यल्लमगरू थी। इनकी पत्नी महालक्ष्मी थी और इनके दो पुत्र गोपीनाथ व विट्ठलनाथ थे।
  • वल्लभाचार्य द्वारा निर्धारित 84 बैठकों में से एक स्थान पुष्कर (अजमेर) में है।
  • वल्लभाचार्य की रचना ’अणुभाष्य’ है।
  • इन्होंने ’शुद्धादैत दर्शन’ का प्रतिपादन किया।
  • विजयनगर साम्राज्य के कृष्ण देवराय के दरबार में यह उनके गुरु बनकर रहे। कृष्ण देवराय ने वल्लभाचार्य को ’महाप्रभु’ की उपाधि दी।
  • विट्ठलनाथ द्वारा अष्टछाप कवि मंडली की स्थापना की गई, जिसमें 8 कवि थे। इस कवि मंडली में सूरदास, परमानन्ददास, कृष्णदास व कुंभनदास, गोविन्ददास व छीतस्वामी यह चारों विट्ठलनाथ के शिष्य थे और नंददास, चतुर्भुजदास, गोविन्ददास व छीतस्वामी ये चारों विट्ठलनाथ के शिष्य थे।
  • अकबर ने इस मंडली से प्रभावित होकर विट्ठलनाथ को जैतपुरा व गोकुल की जागीर दी।
  • विट्ठनाथ जी को गुंसाई की उपाधि मिली थी, तभी से इनकी संतान गुसांई कहलाती है।
  • किशनगढ़ के शासक सावंतसिंह इसी सम्प्रदाय के परम भक्त थे, जो राजकार्य त्याग कर वृंदावन चले गये थे।

गौड़ीय सम्प्रदाय –

  • गौड़ीय सम्प्रदाय की शुरूआत माध्वाचार्य ने की थी।
  • माध्वाचार्य के शिष्य गौड़ स्वामी ने इस दर्शन का सर्वाधिक प्रचार किया, इसी कारण यह सम्पदाय ’गौड़़ीय सम्प्रदाय’ कहलाया।
  • गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक गौरांग महाप्रभु चैतन्य थे।
  • इस सम्प्रदाय की शुरुआत बंगाल से हुई, फिर वृंदावन आया और फिर वृंदावन से जयपुर पहुँचा।
  • गौड़ीय सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ वृंदावन में है।
  • आमेर के शासक मानसिंह प्रथम ने वृंदावन (उत्तरप्रदेश) में गोविन्द देव मंदिर बनवाया था।
  • राजस्थान में गौड़ीय सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ गोविन्द देव मंदिर (सिटी पैलेस, जयपुर) है। इस मंदिर का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया था। जयपुर के शासक सवाई जयसिंह ने इस सम्प्रदाय को सर्वाधिक प्रश्रय दिया था।

राजस्थान में गौड़ीय सम्प्रदाय के मंदिर –

1. मदन मोहन मंदिर – यह मंदिर करौली जिले में स्थित है। इस प्रतिमा के चरण कृष्ण के चरणों जैसे है। इन मंदिरों में राधा कृष्ण जी की युगल मूर्ति की पूजा की जाती है।

2. गोविन्द देव मंदिर – यह मंदिर जयपुर जिले में स्थित है। यह मंदिर सिटी पैलेस में चन्द्रमहल के पास बना है। यह बिना शिखर का मंदिर है। इस प्रतिमा का मुख भगवान कृष्ण के मुख के समान है।

3. गोपीनाथ जी मंदिर – यह मंदिर करौली जिले में स्थित है। इस प्रतिमा का वक्ष कृष्ण के वक्ष के समान है।

जसनाथी सम्प्रदाय –

  • जसनाथी सम्प्रदाय निर्गुण निराकार ब्रह्मा की उपासना करता है।
  • इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक जसनाथ जी थे।
  • जाम्भोजी के गुरु का नाम गोरखनाथ था।
  • जसनाथ जी आजीवन ब्रह्माचारी रहे और गोरख मालिया (बीकानेर) नामक स्थान पर 12 वर्षों तक तपस्या की।
  • सिकन्दर लोदी ने इनको कतरियासर में 500 बीघा भूमि प्रदान की थी।
  • जसनाथ जी ने 1504 ई. में कतरियासर में जसनाथी सम्प्रदाय की स्थापना की।
  • इन्होंने ’लोह पांगल’ नामक तांत्रिक का घमंड चूर किया था।
  • जाम्भोजी के कहने पर दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी ने गौ हत्या पर रोक लगाई थी।
  • मुकाम गांव में जाम्भोजी का समाधि स्थल है, जहाँ फाल्गुन अमावस्या व आश्विन अमावस्या को मेला लगता है।
  • जसनाथी सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ कतरियासर (बीकानेर) में है।
  • जसनाथ जी का मुख्य मंदिर कतरियासर (बीकानेर) में है, यह जसनाथ जी की कर्मस्थली है। यहाँ वर्ष में 3 बार विशाल मेले लगते है।
  • संत जसनाथ जी के उपदेश सिम्भुदड़ा व कोंडा ग्रन्थ में संकलित है। इनकी रचना ’गोरख छन्दो’ व ’सिद्ध जी रो सिर लोको’ है।
  • इन्होंने 36 नियमों का पालन किया। जसनाथी सम्प्रदाय में सम्मिलित होने वाले अधिकांश अनुयायी जाट थे।
  • इस सम्प्रदाय में 150 शब्द है।
  • इस सम्प्रदाय के लोग जाल वृक्ष, मोर पंख व काली ऊन का धागा को पवित्र मानते है।
  • इस सम्प्रदाय में विरक्त की मंडली को ’परमहंस मंडली’ कहते है।
  • जसनाथी सम्प्रदाय के प्रमुख संत लालनाथ जी, सवाई नाथ, चोखनाथ व रूस्तम जी थे।
  • रामनाथ जी द्वारा रचित ग्रन्थ ’यशोनाथ पुराण’ है, यह ’जसनाथी सम्प्रदाय की बाईबल’ कही जााती है।
  • इस सम्प्रदाय की चौरासी बाड़ियाँ प्रसिद्ध है, यह ’आसण’ भी कहलाती है।
  • इनके अनुयायी ’अग्नि नृत्य’ करते है।

विश्नोई सम्प्रदाय –

  • विश्नोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जाम्भो जी थे।
  • जाम्भो जी को पर्यावरण वैज्ञानिक, गुंगा व गहला, विष्णु का अवतार माना जाता है।
  • जाम्भो जी का जन्म पीपासर (नागौर) में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को 1451 ई. को हुआ था।
  • इनके बचपन का नाम धनराज था।
  • 1483 ई. में अपने माता-पिता के देहान्त के बाद जाम्भोजी गृृह त्यागकर अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी और समराथल में रहते हुये सत्संग तथा हरि चर्चा में अपना समय व्यतीत किया।
  • जाम्भो जी गोरखनाथ के शिष्य थे। इन्होंने विष्णु की निर्गुण निराकार उपासना पर बल दिया।
  • समराथल (बीकानेर) में 1485 ई. विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की। समराथल को ’धोक धोरा’ के नाम से जाना जाता है।
  • इन्होंने 29 नियम बनाये और इनका पालन किया।
  • जाम्भोजी को विष्णु का अवतार माना जाता है।
  • जाम्भोजी के प्रमुख ग्रन्थ – 120 शब्द वाणियाँ, जम्भसागर, विश्नोई धर्म प्रकाश व जम्भसंहिता।
  • विश्नोई सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ समराथल धोरा (बीकानेर) में है।
  • जाम्भोजी सिकन्दर लोदी से मिले थे। जाम्भोजी के प्रभाव से ही सिकंदर लोदी ने गौहत्या पर व हरे वृक्ष की कटाई पर प्रतिबंध लगाया था।
  • गुरु जम्भेश्वर के कहने पर जैसलमेर के राजा जैतसिंह ने जाम्भा गाँव (फलौदी) में एक तालाब बनवाया। जो विश्नोई समाज के लिए पुष्कर के समान पवित्र तीर्थ है।
  • जाम्भोजी ने 1536 ई. को लालासर (बीकानेर) में एक कंकेड़ी पेड़ के नीचे शरीर त्यागा तथा तालवा गाँव के निकट समाधि ली। यह स्थान ’मुकाम’ कहलाता है।
  • इनका मेला फाल्गुन अमावस्या व आश्विन अमावस्या को मुकाम में भरता है। यह मेला ’विश्नोईयों का कुम्भ’ कहलाता है।
  • इन्होंने विश्व में पर्यावरण आन्दोलन के प्रथम प्रणेता माने जाते है। इन्होंने खेजड़ी वृक्ष व वन्य जीवों के महत्त्व को समझाया।
  • विश्नोई खेजड़ी वृक्ष की पूजा करते है। इन्होंने संसार को गोवलवास बताया है।
  • जाम्भोजी के मुख से उच्चारित वाणी सबदवाणी, जम्भवाणी व गुरु वाणी कहलाती है। इनका प्रवचन स्थल ’सांथरी’ कहलाता है।
  • जाम्भोजी द्वारा अभिमंत्रित जल पाहल, इसे पिला कर विश्नोई पंथ में दीक्षित करते थे।
  • विश्नोई लोग नीले वस्त्र नहीं पहनते।
  • विश्नोई सम्प्रदाय को हरे वृक्षों की रक्षा के लिए जाना जाता है।
  • जाम्भोजी की समाधि मुकाम (बीकानेर) में है।
  • गुरु जाम्भोजी के प्रति अगाध आस्था होने के कारण बीकानेर के राजाओं ने अपने राजकीय झंडे में खेजड़ी के वृक्ष को राज्य चिह्न के रूप में अंकित करवाया, जिसे ’माटो’ कहते है।

लालदासी सम्प्रदाय –

  • लालदासी सम्प्रदाय का प्रवर्तक लालदास जी थे।
  • इनका जन्म धौलीदूब (अलवर) में 1540 ई. में श्रावण कृष्ण पंचमी को हुआ था।
  • लालदास जी मेव जाति के मुसलमान थे।
  • इनकी मृत्यु 1648 ई. में नगला जहाज (भरतपुर) में हुई।
  • इनकी समाधि शेरपुर (कोटपूतली-बहरोड़) में है, जहाँ पर आश्विन एकादशी व माघ पूर्णिमा को मेला लगता है।
  • इनकी प्रमुख पीठ नगला जहाज (भरतपुर) में है।
  • इनके गुरु गद्दन चिश्ती थे। इन्होंने मुस्लिम संत गद्दन चिश्ती से दीक्षा ली और उन्हीं की प्रेरणा से धोलीदूब छोड़कर बांधोली ग्राम में ’सिंह शिला’ पहाड़ पर कुटिया बना ली।
  • लालदासी सम्प्रदाय में व्यक्ति को स्वयं कमाकर खाना अनिवार्य है।
  • इस सम्प्रदाय में दीक्षा लेने का तरीका अलग ही तरह का होता है, जिसमें व्यक्ति को मुँह काला करके गधे पर उल्टा मुँह करके बिठाया जाता है पूरे गाँव में घुमाया जाता है बाद में मिठी शर्बत पिलायी जाती है।
  • इनके अनुयायी वैष्णव सम्प्रदाय की पालना करते है।
  • लालदासी सम्प्रदाय के अधिकांश अनुयायी मेव जाति के मुसलमान होते है। हिन्दू मुस्लिम एकता व नैतिक शुद्धता पर बल दिया था।
  • इनका प्रमुख ग्रन्थ ’लालदास जी की चेतावण्या’ में इनकी वाणियाँ संग्रहित है।

चरणदासी सम्प्रदाय –

  • चरणदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक चरणदास जी थे।
  • यह सम्प्रदाय सगुण व निर्गुण भक्ति का मिश्रण है।
  • इस सम्प्रदाय में निर्गुण निराकार ब्रह्मा की सखि भाव से सगुण भक्ति की जाती है।
  • इस सम्प्रदाय के 42 नियम होते है तथा चरणदास जी के 52 शिष्य थे।
  • इनका जन्म डेहरा गाँव अलवर में हुआ था।
  • इनके बचपन का नाम रणजीत था।
  • इनके गुरु शुकदेव जी थे। शुकदेव से दीक्षा लेकर इन्होंने अपना नाम ’चरणदास’ रखा।
  • इनके प्रमुख ग्रन्थ – अष्टांग योग, ब्रह्मा ज्ञान सागर, योग संदेह सागर, ब्रह्मा चरित्र, ज्ञान स्वरोदय, भक्ति सागर, सबद, भक्ति पदारथ।
  • इनकी मृत्यु विक्रम संवत् 1839 (मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी) को दिल्ली में हुआ। यहाँ इनकी समाधि बनी हुई है और यहीं पर बसन्त पंचमी को इनका मेला लगता है।
  • इनकी अंतिम यात्रा जयपुर शासक सवाई प्रतापसिंह के आग्रह पर विक्रम संवत् 1839 में जयपुर हुई, जहाँ पर 10 दिन तक रहे और राज्य की ओर से उपहार में इन्होंने 1 गाँव कोलीवाड़ा और 21 स्वर्ण मुद्राएँ स्वीकार की।
  • चरणदासी सम्प्रदाय के संत पीले वस्त्र धारण करते है।
  • इस सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ दिल्ली में है।
  • चरणदास जी ने नादिरशाह के आक्रमण की भविष्यवाणी की थी।
  • चरणदास जी की दो प्रमुख शिष्याएँ सहजोबाई व दयाबाई है।
  • सहजोबाई की रचना सहज प्रकाश, सात वार निर्णय व 16 तिथि निर्णय है।
  • दयाबाई की रचना दया बोध व विनय मालिका है।

दादू पंथ –

  • इसे ’परब्रह्मा सम्प्रदाय’ कहा जाता है।
  • दादू पंथ के प्रवर्तक दादू दयाल है।
  • दादू दयाल का जन्म 1544 ईस्वी को अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था।
  • दादू दयाल को ’राजस्थान का कबीर’ कहा जाता है।
  • इन्होंने 11 वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर घर को त्याग दिया और 19 वर्ष की आयु में राजस्थान में प्रवेश कर सिरोही, कल्याणपुर, सांभर, अजमेर होते हुये नरायणा पहुँचे। इन्होंने अपना अधिकांश समय नरायणा में व्यतीत किया।
  • इनके गुरु बुड़धन जी थे।
  • दादूदयाल ने 1574 ई. में सांभर में ’ब्रह्मा सम्प्रदाय’ की स्थापना की, जो आगे चलकर ’परब्रह्मा सम्प्रदाय’ कहलाया और अंत में ’दादू पंथ’ के नाम से जाना गया।
  • 1575 ई. को दादू अपने 25 शिष्यों के साथ आमेर चले गये।
  • इन्होंने अपना प्रथम उपदेश सांभर में दिया।
  • दादू पंथ की प्रमुख पीठ नरायणा (दूदू) में है।
  • दादू की रचनाएँ – दादूजी री वाणी, कायाबेलि व दादूदयाल रा दुहा।
  • हरड़ेवाणी व अंगवधू दादू जी की रचनाओं का संग्रह है।
  • इनका सत्संग स्थल ’अलख दरीबा’ कहलाता है।
  • दादूदयाल ने 1603 ई. में नरायणा (दूदू) में भैराणा पहाड़ी पर समाधि ली।
  • इनका मेला फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लगता है।
  • 1585 ई. में दादू को अकबर ने धार्मिक चर्चा के लिए फतेहपुर सीकरी के इबादतेखाने में बुलाया था।
  • दादू ने ’निपख आन्दोलन’ चलाया।
  • दादूपंथी विवाह नहीं करते है। यह बच्चे गोद लेकर अपना पंथ चलाते है।
  • इस पंथ के लोग न तो शव जलाते है और न ही दफनाते हैं बल्कि शव को पशु पक्षियों के लिए जंगल में छोड़ देते है।
  • दादू जी के 152 शिष्य थे, जिनमें से इनके 52 प्रमुख शिष्य ’बावन स्तम्भ’ कहलाते है।
  • इनके शिष्य – गरीबदास, जनगोपाल, बखना जी, सुन्दरदास, रज्जब जी, गरीबदास, मिस्किनदास, बालिन्द जी, माधोदास जगजीवन दास, जनगोपाल।
  • इस पंथ के पंचतीर्थ कल्याणपुर, आमेर, सांभर, नरायणा व भैराना है।

दादूपंथ की पाँच शाखाएँ निम्न है –

1. खालसा – आचार्य परम्परा से सम्बन्धित साधु। जिसे गरीबदास जी ने आरंभ किया।
2. खाकी – शरीर पर भस्म रमाते और जटा रखते है।
3. नागा – सुन्दरदास ने नागा पंथ प्रारम्भ किया, जिसमें साधु अपने पास हथियार भी रखते हैं। इन्हीं संतों ने सवाई जयसिंह (जयपुर), मानसिंह (जोधपुर) की सहायता की थी।
4. उत्तरादे – राजस्थान छोड़कर उत्तर भारत में चले गये।
5. विरक्त – गृहस्थियों को उपदेश देते है।

दादू पंथ के संत

गरीबदास –

  • गरीबदास दादूदयाल के पुत्र थे।
  • दादूदयाल की मृत्यु के बाद गरीबदास गद्दी पर बैठे। बाद में इन्होंने खुद को अक्षम बताकर दादू की गद्दी त्याग दी थी।
  • इन्होंने दादू पंथ में ’खालसा वर्ग’ प्रारम्भ किया।
  • इनकी रचनाएँ आध्यात्म बोध, साखी पद व अनभै प्रबोध है।

संत सुन्दरदास जी –

  • संत सुन्दरदास जी का जन्म गैटोलाव (दौसा) में 1596 ई. को हुआ था।
  • यह दादू के परम शिष्य थे।
  • इन्होंने दादू पंथ में ’नगा साधु वर्ग’ प्रारम्भ किया।
  • यह संत कवियों में सर्वाधिक शिक्षित और विद्वान थे। इन्हें इनकी विद्वता व अनेक ग्रन्थों की रचना के कारण ’राजस्थान का शंकराचार्य’ भी कहा जाता है।
  • सुन्दरदास जी ने कुल 42 ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें से प्रमुख ग्रन्थ सुन्दरविलास, ज्ञान सवैया, ज्ञानसमुन्द्र, सुन्दर ग्रन्थावली, सुन्दरसार व सर्वांगयोगप्रदीपिका आदि है।
  • सुन्दरदास पर 8 नवम्बर, 1997 को 2 रु. का टिकट जारी किया गया।

संत रज्जब जी –

  • संत रज्जब का जन्म सांगानेर में हुआ था।
  • इनके गुरु दादूदयाल थे।
  • इनकी प्रधान पीठ सांगानेर में है।
  • रज्जब जी आजीवन दूल्हे के वेश में रहे।
  • इनके उपदेश रज्जब वाणी व सर्वंगी है।
  • इनके अनुयायी रज्जबपंथी कहलाते है। इनके 10 शिष्य थे।

रामस्नेही सम्प्रदाय –

  • रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामचरणदास जी थे।
  • रामस्नेही सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ शाहपुरा में है।
  • रामचरण दास का जन्म सोडा ग्राम, मालपुरा (टोंक) में 1719 ई. को हुआ था।
  • गुदड़ सम्प्रदाय के संत कृपाराम को अपना गुरु स्वीकार कर 1751 ई. में दीक्षा ली।
  • इनका प्रमुख ग्रंथ ’अर्णभवाणी’ है।
  • इनके अनुयायी राम जी राम या राम-राम कहकर अभिवादन करते है।
  • संत रामचरण जी ने शाहपुरा में 1760 ई. में रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना की।
  • शाहपुरा नरेश रणसिंह ने रामचरण जी के रहने के लिए छतरी का निर्माण करवाया।
  • रामस्नेही सम्प्रदाय के मंदिर को ’रामद्वारा’ कहा जाता है।
  • इस संप्रदाय के संत गुलाबी वस्त्र पहनते है।

रामस्नेही सम्प्रदाय की शाखाएँ –

शाखा संस्थापक गुरू ग्रंथ
1. शाहपुरा (शाहपुरा) संत रामचरण जी  संत कृपाराम अणभैवाणी/अर्नभवाणी
2. रैण शाखा (नागौर) संत दरियाव जी संत प्रेमनाथ
3. सिंहथल शाखा (बीकानेर) संत हरिराम दास जी संत जैमल दास जी निशानी
4. खेड़ापा शाखा (जोधपुर ग्रामीण) संत रामदास संत हरिराम दास जी

निरंजनी सम्प्रदाय –

  • निरंजनी सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत हरिदास जी थे।
  • संत हरिदास जी का जन्म कापडोद (डीडवाना-कुचामन) में 1455 ई. में हुआ था।
  • इनका मूल नाम हरिसिंह सांखला थे।
  • संत हरिदास जी को ’कलयुग का वाल्मिकी’ कहते है।
  • संत बनने से पहले इन्होंने आजीविका के लिए डकैत मार्ग अपनाया था।
  • इनकी प्रधान पीठ गाढ़ा (डीडवाना-कुचामन) में है।
  • इन्होंने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया तथा कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने परमात्मा को ’अलख निरंजन’ कहा।
  • इनके ग्रंथ ’मंत्र राजप्रकाश’’हरि पुरुष की वाणी’ है।
  • इनके अनुयायी निरंजनी कहलाते है।

इनके दो प्रकार है –

1. निहंग – वैरागी जीवन व्यतीत करने वाला।
2. घरबारी – गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाला।

गुदड़ सम्प्रदाय –

  • यह सम्प्रदाय निर्गुण भक्ति परम्परा से संबंधित है।
  • गुदड़ सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत रामदास जी थे।
  • इनकी प्रमुख पीठ दांतड़ा (शाहपुरा) में है।
  • संत रामदास जी के द्वारा गुदड़ी ओढ़ने के कारण यह ’गुदड़ सम्प्रदाय’ कहलाया।

रसिक सम्प्रदाय –

  • रसिक सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी अग्रदास जी थे।
  • इस सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ रैवासा (सीकर) में है।
  • इसमें राम की माधुर्य भाव की भक्ति होती है तथा सीता और राम की शृंगारिक जोड़ी की पूजा होती है।

अलखिया सम्प्रदाय –

  • यह सम्प्रदाय निर्गुण भक्ति से संबंधित है।
  • अलखिया सम्प्रदाय के प्रवर्तक लालगिरी थे।
  • इस सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ बीकानेर में है।
  • इनके प्रमुख ग्रन्थ ’अलख स्तुति प्रकाश’’कुण्डलियां’ है।
  • इनके सर्वाधिक अनुयायी मोची जाति के होते है।
  • लालगिरी जी कई सालों तक बीकानेर दुर्ग के सामने रहे थे, उसी स्थान पर उनकी स्मृति में लाल पत्थर लगा है।
  • लालगिरी जी की समाधि गलता जी (जयपुर) में है।

परनामी सम्प्रदाय –

  • परनामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक प्राणनाथ थे।
  • इस सम्प्रदाय में श्री कृष्ण जी की उपासना की जाती है।
  • इनकी प्रमुख पीठ पन्ना (मध्यप्रदेश) में है।
  • राजस्थान में इनकी प्रमुख पीठ आदर्श नगर (जयपुर) में है। राजस्थान में इस सम्प्रदाय के सर्वाधिक अनुयायी जयपुर में है।
  • इस सम्प्रदाय में प्राणनाथ द्वारा रचित ’कुजलम स्वरूप’ नामक ग्रंथ की पूजा की जाती है।

सिक्ख सम्प्रदाय –

  • सिक्ख सम्प्रदाय निर्गुण भक्ति परम्परा से संबंधित है।
  • सिक्ख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानकदेव जी थे।
  • गुरु नानकदेव का जन्म तलवंडी (ननकाणा साहिब, पाकिस्तान) में 15 अप्रैल, 1469 ई. को हुआ था।
  • इनके उपदेश ’गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संग्रहित है।
  • इनकी रचनाएँ जपूंजी व अंसादीबार है।
  • गुरु तेगबहादुर जी ने औरंगजेब की नीतियों का कठोरता से विरोध किया, इसलिए इन्हें ’शहीद’ होना पड़ा।
  • गुरु रामदास ने अमृतसर नगर बसाया था।

राजाराम सम्प्रदाय –

  • राजाराम सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत राजाराम थे।
  • इनकी प्रमुख पीठ शिकारपुरा (जोधपुर ग्रामीण) में है।
  • संत राजाराम जी ने वृक्षारोपण व भ्रातृभाव का संदेश दिया था।

राजस्थान के प्रमुख संत

  • संत पीपा जी
  • संत रैदास
  • संत दादूदयाल
  • संत जम्भेश्वर
  • वल्लभाचार्य
  • संत धन्ना जी
  • मीराबाई
  • गवरी बाई
  • संत मावजी
  • बालनंदाचार्य
  • करमा बाई
  • राना बाई

संत पीपा जी –

  • संत पीपा जी का जन्म 1425 ई. में चैत्र पूर्णिमा को गागरोन दुर्ग (झालावाड़) मेें हुआ।
  • इनके बचपन का नाम प्रतापसिंह खींची था।
  • इनके पिता कड़ावाराव खींची और माता लक्ष्मीवती थी।
  • इनके गुरु रामानन्द जी थे। संत पीपा के निवेदन पर आचार्य रामानन्द द्वारिका जाते समय अपने शिष्यों सहित गागरोन आये थे। तब पीपा ने अपने भाई अचलदास को गागरोन का शासन सौंपकर रामानन्द के साथ द्वारिका चले गये। इन्होंने अपनी सबसे छोटी पत्नी सीता की प्रेरणा से उसको साथ लेकर गृहत्याग किया था।
  • संत पीपा दर्जी समुदाय के आराध्य देव थे। इसलिए इन्होंने संत जीवन अपनाने के बाद भिक्षावृत्ति नहीं की, दर्जी का कार्य करके अपना जीवनयापन किया।
  • संत पीपा की रचना चिन्तावणी, पीपा की परची, पीपा की वाणी है।
  • पीपा के भजनों का संग्रह ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में मिलता है।
  • पीपा ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया। इन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और ईश्वर की उपासना पर बल दिया। इन्होंने निर्गुण ब्रह्मा की उपासना पर जोर दिया। उनका मत था कि ईश्वर की दृष्टि में भी प्राणी समान है।
  • राजस्थान में सर्वप्रथम निर्गुण भक्ति परम्परा की अलख संत पीपा ने जगाई थी।
  • संत पीपा जी का प्रमुख मंदिर समदड़ी (बालोतरा) में लूणी नदी के किनारे स्थित है। यहाँ चैत्र पूर्णिमा को मेला भरता है।
  • मसुरिया पहाड़ी (जोधपुर) व गागरोन (झालावाड़) में भी संत पीपा का मेला भरता है।
  • संत पीपा जी का निधन गागरोन में हुआ था।
  • संत पीपा की छतरी गागरोन में है यहाँ इनके चरण चिह्न की पूजा होती है।

संत रैदास –

  • संत रैदास का जन्म सीर गोवर्धनपुर, काशी में 1388 ई. को हुआ था। यह चमार जाति से थे।
  • इनके गुरु रामानन्द जी थे।
  • इनके पिता संतोखदास व माता कलसा देेवी थी।
  • रैदास की पत्नी लोना थी।
  • मीराबाई के बुलाने पर राजस्थान में रैदास जी सर्वप्रथम आये। तभी मीराबाई इनकी शिष्या बन गई थी।
  • चित्तौड़ दुर्ग के मीरां मंदिर के सामने संत रैदास की 4 खम्भों की छतरी बनी है, जिसका निर्माण मीरां ने इनके यहाँ आने की स्मृति में करवाया था।
  • संत रैदास के भजन ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संग्रहित है।
  • संत रैदास का पैनोरमा चित्तौड़ दुर्ग के पास, चित्तौड़ीखेड़ा ग्राम मेें निर्माणाधीन है, इसके लिए मोहर मगरी के सामने 5 बीघा भूमि आवंटित की गई है।
  • संत रैदास की छतरी चित्तौड़गढ़ दुर्ग में बनी है।

संत धन्ना जी –

  • संत धन्ना जी राजस्थान में निर्गुण भक्ति परम्परा के प्रथम संत थे।
  • यह जाट जाति से संबंधित थे। इनका जन्म धुवन ग्राम (टोंक) मेें 1415 ई. में वैशाख कृष्ण अष्टमी को हुआ था।
  • यह रामानन्द के शिष्य थे।
  • धन्ना जी राजस्थान छोड़कर बनारस चले गये थे और यहीं रामानन्द जी केे शिष्य बन गये थे। अपने गुरु रामानन्द के प्रभाव से यह निर्गुण उपासक बन गये। गुरु रामानन्द ने इन्हें घर पर ही भक्ति करने का आदेश दिया। इन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय कृषि में रहते हुए ही आत्मशुद्धि का प्रयास किया।
  • संत धन्ना को राजस्थान में भक्ति आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता है।
  • इनका प्रमुख मंदिर धुवन गाँव (टोंक) में है और यहीं इनका मेला भरता है। जिसमें राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब से सर्वाधिक अनुयायी आते है।
  • सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव जी ने धन्ना जी की भक्ति भाव के बारे में ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में उल्लेख किया है।
  • संत धन्ना जी ने अपनी हठ प्रवृत्ति से श्री कृष्ण के साथ भोजन किया।

मीराबाई –

  • मीरा बाई का जन्म कुड़की गाँव (ब्यावर) में 1498 ई. में वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था।
  • कृष्ण भक्त कवयित्री मीरां बाई 16 वीं सदी में भारत के महान संतों में से एक थी।
  • इनके बचपन का नाम पेमल था।
  • इनके पिता बाजोली के जागीरदार रतनसिंह राठौड़ थे और माता कसूब कंवर थी। इनके दादा मेड़ता के शासक राव दूदा थे।
  • इनका लालन-पालन मेड़ता (नागौर) में हुआ।
  • मीरां बाई सगुण भक्ति परम्परा से संबंधित है।
  • कृष्ण को पति मानकर उनकी पूजा करती थी।
  • इनके गुरु पंडिज गजाधर थे। इनके आध्यात्मिक गुरु संत रैदास थे।
  • इनका विवाह चित्तौड़गढ़ में महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ 1516 ई. में हुआ।
  • अपने पति भोजराज के निधन के बाद मीरांबाई कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगी।
  • विक्रमादित्य मीरांबाई को प्रताड़ित करता था। इसी कारण मीरां चित्तौड़़ छोड़कर मेड़ता (नागौर) और फिर वृंदावन चली गई। वृंदावन में इन्होंने दास-दासी सम्प्रदाय की स्थापना की। इसके बाद द्वारिका चली गयी थी।
  • इनके दादा राव दूदा ने मेड़ता (नागौर) में मीरांबाई के लिए ’मीरां मंदिर’ बनवाया था।
  • मीरां की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ’पदावली’ है। अन्य रचनाएँ टीका राग गोविन्द, नरसी मेहता री हुंडी, राग सोरठ के पद, मीरां की गरीबी, रूकमणी मंगल व सत्यभामाजी नूंरूसणां आदि।
  • मीरां ने ब्रज भाषा में कविताएँ लिखीं।
  • रतना खाती ने मीरां बाई के जीवन पर ब्रज भाषा में ’नरसी बाई रो मायरो’ नामक ग्रन्थ लिखा।
  • मीरांबाई का अंतिम समय द्वारिका (गुजरात) में बीता। ऐसा माना जाता है कि मीरां गुजरात के रणछोड़ मंदिर में 1547 ई. में कृष्ण भगवान की मूर्ति में समा गई थी।
  • मीरां का स्मारक राव दूदागढ़ मेड़ता (नागौर) में है।
  • मीरां बाई राजस्थान की प्रथम ऐतिहासिक महिला है, जिन पर 1 अक्टूबर, 1952 को 2 आना की डाकटिकट जारी किया गया।

गवरी बाई –

  • गवरी बाई को ’वागड़ की मीरां’ कहा जाता है।
  • इनका जन्म डूँगरपुर में ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
  • इनका मंदिर डूँगरपुर में है। डूँगरपुर के महाराव शिवसिंह ने 1829 ई. को डूँगरपुर में इस मंदिर का करवाया था।
  • गवरी बाई श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थी। इसलिए इन्होंने कृष्ण की पति रूप में भक्ति की थी।
  • इनके द्वारा रचित ग्रन्थ ’कीर्तनमाला’ है।

संत मावजी –

  • संत मावजी को ’वागड़ का धणी’ कहा जाता है।
  • संत मावजी का जन्म साबला (डूँगरपुर) में ब्राह्मण परिवार में 1714 ई. में माघ शुक्ल पंचमी को हुआ था।
  • इनके पिता दालम ऋषि और माता केशर बाई थी।
  • मावजी को ’कृष्ण का निष्कलंक अवतार’ माना जाता है।
  • मावजी माही नदी के किनारे गायें चराते थे और कृष्ण का रूप धारण कर नाचते गाते थे। 12 वर्ष की आयु में ही घर छोड़कर माही व सोम नदी के संगम पर एक गुफा में तपस्या करने लगे। 1727 ई. में माघ शुक्ल एकादशी के दिन इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, उसी दिन इन्होंने बेणेश्वर धाम की स्थापना की।
  • इनका प्रमुख मंदिर साबला (डूँगरपुर) में माही नदी के तट पर स्थित है। यहाँ मावजी की शंख, चक्र, गदा और पद्म सहित घोड़े पर सवार चतुर्भुज मूर्ति है।
  • इनके द्वारा वागड़ क्षेत्र में भीलों के लिए सामाजिक सुधार के लिए ’लसाड़िया आन्दोलन’ चलाया गया।
  • संत मावजी ने पाँच बड़े ग्रन्थों की रचना की थी, जिनके छन्दों की संख्या 72 लाख 96 हजार बताई जाती है। यह ग्रन्थ ’चैपड़ा’ कहलाते है। मावजी के ये चैपड़े केवल दीपावली के दिन ही बाहर निकाले जाते है।
  • सोम, माही व जाखम नदी के त्रिवेणी संगम पर नवाटापुरा गांव (डूँगरपुर) में बेणेश्वर मंदिर/धाम स्थित है। यहाँ खण्डित शिवलिंग की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण संत मावजी ने करवाया।

बालनंदाचार्य –

  • बालनंदाचार्य सगुण भक्ति परम्परा के संत थे।
  • इनका जन्म 1635 ई. में गढ़मुक्तेश्वर में हुआ था।
  • इनके गुरु बिरजानन्द थे, जिन्होंने इनको सैन्य गतिविधियाँ सिखाई।
  • इन्होंने साधुओं को सैन्य प्रशिक्षण देकर एक सैन्य दल बनाया, जिसे ’लश्करी’ कहा जाता था। इस दल के नेतृत्व में लगभग 52 देवमूर्तियाँ औरंगजेब के काल में राजस्थान में स्थापित करवाई गई।
  • इनका मुख्य क्षेत्र लोहार्गल (झुंझुंनूँ) था, जहाँ यह मालकेतु पर्वत पर हनुमान जी की पूजा करते थे।
  • 1675 ई. में बालानन्द ने हरिद्वार के धार्मिक विद्रोह में सैनिक साधुओं का नेतृत्व किया।

करमा बाई –

  • करमा बाई का जन्म कालवा गाँव (डीडवाना-कुचामन) में हुआ था।
  • इनके पिता जीवनराम डुडी व माता रतनी देवी थी।
  • इनका मंदिर कालवा (डीडवाना-कुचामन) में है।
  • करमाबाई ने भगवान कृष्ण की प्रतिमा को जिद्द करके खिचड़ा खिलाया था, जिसकी स्मृति में आज भी भगवान जगन्नाथ को खिचड़े का भोग लगाया जाता है।

भूरी बाई –

  • भूरी बाई मेवाड़ की प्रसिद्ध कृष्ण की उपासक थी।
  • इनका जन्म में सरदारगढ़ (राजसमंद) में 1892 को हुआ था।
  • इन्होंने नाथद्वारा के विधुर फतहलाल से विवाह किया। देवगढ़ की मुस्लिम योगिनी नूराबाई से मिलने पर इन्हें वैराग्य प्राप्त हुआ और संत जीवन व्यतीत किया।

संत राना बाई –

  • संत राना बाई सगुण भक्ति परम्परा से संबंधित थी।
  • इनका जन्म हरनावा गाँव (डीडवाना-कुचामन) में हुआ था।
  • इनके पिता रामगोपाल व माता गंगाबाई थी।
  • इनके गुरु चतुरदास थे।
  • यह भगवान कृष्ण की भक्त थी।
  • इन्हें ’राजस्थान की दूसरी मीरां’ कहा जाता है।
  • 1570 ई. में रानाबाई ने हरनावाँ गाँव में जीवित समाधि ली थी। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को विशाल मेला भरता है।

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